गीता वाहिनी सूत्र -१२ || Geetha Vahini -12 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti || सुख दुःख
सुख दुःख
साधारणतया मनुष्य सुख और आनंद ही चाहता है। कैसा भी दबाव हो वह दुःख और शोक नहीं चाहता। सुख और आनंद को ही वह अपना निकटतम शुभचिंतक समझता है, और दुःख और शोक उसको भयानक दुश्मन से लगते हैं। यह एक बहुत बड़ी भूल है। सुख की अवस्था में शोक का खतरा है, उस सुख के छिन जाने का भय मनुष्य का सदा पीछा करता रहता है। दुःख जांच-पड़ताल विवेक और आत्म परीक्षण का प्रेरक है, और बुरी से बुरी घटनाओं के होने का भय दिखाता है। वह तुम्हें आलस्य और अभिमान की निद्रा से जगाता है। मनुष्य होने के नाते अपने कर्तव्यों को सुखी मनुष्य भूल जाता है। सुख उसे अहंकार की ओर ले जाकर उसे अहंकार जन्य पाप करवाता है। दुःख ही उसे सतर्क और तत्पर बनाता है।
इसलिए दुःख ही सच्चा मित्र है। अच्छे कर्मों के संचित मूलधन को सुख खर्च कर देता है और हीन प्रवृत्तियों को उकसाता है। वास्तव में सच्चा दुश्मन वही है। मनुष्य को वास्तविकता का ज्ञान दुःख ही दिलाता है, वही विचार शक्ति को विकसित कर आत्मोन्नति करता है। नए व अमूल्य अनुभव देता है। सुख तो सशक्त बनाने वाले अनुभवों पर पर्दा डाल देता है। इसीलिए कष्ट और दुःख को मित्र समझना चाहिए; कम से कम दुश्मन तो नहीं समझना चाहिए। श्रेष्ठ तो यही होगा कि सुख और दुःख दोनों को भगवान का दिया उपहार ही समझा जाए। व्यक्ति के लिए मुक्ति का सबसे सरल मार्ग यही है।
इसे न जानना ही मूल अज्ञान है ऐसा अज्ञानी व्यक्ति अंधा है। वास्तव में सुख और दुःख एक अंधे आदमी की और एक आंखों वाले आदमी की तरह है। अंधे के साथ आंखों वाले का भी स्वागत होता है, क्योंकि वह सर्वदा उसके साथ रहता है। इस प्रकार सुख और दुःख भी अलग नहीं हो सकते इनमें से एक का स्वागत और दूसरे का त्याग नहीं किया जा सकता। कष्ट से सुख का मूल्य भरता है। दुःख के बाद सुख आने पर प्रसन्नता बढ़ती है। अर्जुन को सब द्वन्द्व विरोधी अवस्थाओं के निरर्थकता का ज्ञान कराते हुए कृष्ण ने इस प्रकार कहा।
श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय ४ पृष्ठ ३७-३८
“Generally, people seek only happiness and joy; under no circumstance do they desire misery and grief!
They treat happiness and joy as their closest well-wishers and misery and grief as their direct enemies. This is a great mistake. When one is happy, the risk of grief is great; fear of losing the happiness will haunt one. Misery prompts inquiry, discrimination, self-examination, and fear of worse things that might happen. It awakens one
from sloth and conceit. Happiness makes one forget one’s obligations to oneself as a human being. It drags one
into egotism and the sins that egotism leads one to commit. Grief renders one alert and watchful.
“Happiness spends the stock of merit and arouses the baser passions, so it is a real enemy. Really, misery is
an eye opener; it promotes thought and the task of self-improvement, so it is a real friend. Misery also endows
one with new and valuable experiences. Happiness draws a veil over experiences that hardens people and makes them tough. So, troubles and travails are to be treated as friends; at least, not as enemies. Only, it is best to regard
both happiness and misery as gifts of God. That is the easiest path for one’s own liberation.
“Not to know this is the basic ignorance. A person so ignorant is blind; really, happiness and misery are like the blind person, who must always be accompanied by one who sees. When the blind person is welcomed, inevitably you have to welcome the person with eyes, who is the constant comrade of the blind one. So too, happiness
and misery are inseparable; you cannot choose only one. Moreover, misery highlights the value of happiness. You
feel happy by contrast with misery.” Thus said Krishna to Arjuna, to teach him the insignificance of all duality.
Sri Sathya Sai Baba
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