गीता वाहिनी सूत्र - ५ || Geetha Vahini - 5 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti || मन्मना भव मद्भक्तः || Manmana Bhava


मन्मना भव मद्भक्तः मद्याजी माम् नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।

'मन्मना' - यानी प्रत्येक प्राणी में परमात्मा को ही देखना, अस्तित्व के प्रत्येक क्षण में परमात्मा की चेतना। इसी चैतन्य के आनंद में लीन रहना।
'मद्भक्त' अर्थात् परमात्मा के प्रति निश्चल भक्ति और प्रेम के परिणामस्वरूप उत्पन्न संबंध में एक रूप हो जाना।
'मद्याजी' का अर्थ है कि छोटे बड़े सब कार्य (इच्छा, संकल्प, वृत्ति, कृति, फल प्राप्ति) आरंभ से अंत तक कृष्ण को अर्पण कर दो और अपने सब मोह को त्याग कर, सब कार्य निष्काम पूजा समझकर विरक्त भाव से करो। भगवान तुमसे यही चाहते हैं।

'मामेवैष्यसि' - तुम मेरे पास आओगे, तुम मेरी प्राप्ति की ओर आओगे, अर्थात तुम मेरे रहस्य को जानोगे तुम मुझ में प्रविष्ट होगे, तुम्हें मेरा स्वभाव प्राप्त होगा।
जब व्यक्ति प्रत्येक में परमात्मा को देखने की अवस्था प्राप्त कर लेता है जब ज्ञान का प्रत्येक साधन उसे एक परमात्मा का अनुभव कराता है वही दिखता है, सुनाई देता है, रस, गंध, स्पर्श में भी परमात्मा का अनुभव होता है तब ऐसा व्यक्ति परमात्मा के शरीर का एक हिस्सा बन जाता है परमात्मा उसी के साथ रहता है इसमें कोई संदेह नहीं।

श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय १ पृष्ठ १६-१७

Here is what the Lord seeks from
you: Seeing Him in every being, being aware of Him every moment of existence, and being immersed in the bliss
(ananda) of this awareness. Also, being merged in the relation caused by profound devotion and love to Him.
And, dedicating all acts, big and small, to Him, Krishna. Wish, will, attitude, activity, fruit, consequence —dedicating everything from beginning to end. Finally, renunciation of all attachment to the self and performance of all
acts in a spirit of worshipful non-attachment. This is what the Lord seeks from you.

“You will come near Me; you will approach Me (Maamevaishyasi)”. That is to say, you will understand My
mystery, you will enter into Me, you will achieve My nature. In these terms, acquiring divine nature, existence in
God, and unity in God are indicated. When one has attained the state of realizing the divinity in every being, when
every instrument of knowledge brings the experience of that divinity, when It alone is seen, heard, tasted, smelled,
and touched, then one becomes undoubtedly a part of the body of God and lives in Him and with Him.

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