गीता वाहिनी सूत्र - १४ || Geetha Vahini -14 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti festival



बुद्धि से युक्त होकर उसकी पूर्ण चेतनता में कर्म फल की प्राप्ति के त्याग को कृष्ण "बुद्धि योग" कहते हैं। बुद्धि शुद्ध और प्रशिक्षित करनी होगी अन्यथा कर्मफल मोह का त्याग और कार्यों को कर्तव्य या समर्पण समझ कर करना असंभव हो जाएगा। ऐसी शुद्ध बुद्धि का नाम "योग बुद्धि" है। इसको पुष्ट कर अपने को कर्म के बंधनों से मुक्त करो। सत्य तो यह है कि तुम, वास्तविक 'तुम' कर्म से ऊंचे और परे हो।
तुम यह कहते हो कि कर्म के फलों का त्याग करना कठिन है, इससे तो मैं कर्म ही नहीं करूंगा। लेकिन यह असंभव बात है। कर्म करना अनिवार्य है। कोई ना कोई कार्य तो करना ही होता है। एक क्षण के लिए भी कोई अपने को कर्म से रहित नहीं कर पाता। "न हि कश्चित्क्षणमपि" गीता के तीसरे अध्याय कृष्ण ने कहा है।
"अर्जुन! प्रत्येक कार्य या कर्म का आरंभ और अंत होता है। लेकिन निष्काम कर्म आरंभ और अंत रहित है। दोनों में यही भेद है। जब लाभ प्राप्ति की इच्छा से कर्म किया जाता है तब व्यक्ति को हानि, दुःख और दर्द भी भुगतना पड़ता है। लेकिन निष्काम कर्म तुम्हें इन सब से मुक्त रखता है।

कर्म फल की इच्छा करने से इच्छा के चक्कर में पड़ तुम्हें  बार बार जन्म लेना पड़ता है, लेकिन इस इच्छा का त्याग करने से तुम जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाओगे। इस प्रकार के ध्यान के अभ्यास से तुम्हारी बंधन मुक्त अवस्था हो जाएगी। मुख्य बात तो लक्ष्य पर दृढ़ रहना है। लक्ष्य कर्म है कर्म फल नहीं।

श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय ४ पृष्ठ ४२-४३

When desire to attain the fruit of action is renounced with full awareness, then it becomes what Krishna calls the “yoga of intelligence”. The intellect has to be purified and trained; otherwise, it is impossible to give up attach￾ment to the fruits of action and to continue doing things as either duty or dedication. Such a purified intellect is
named yoga-buddhi. Cultivate it and then, through it, liberate yourself from the bondage of action (karma). Really speaking, you, the true you, is above and beyond action.
You might say you will desist from action (karma) rather than practice the difficult discipline of renouncing the fruits thereof. But that is impossible. No, it is inevitable. One has to do some action or other. “Not for a single
moment can one free oneself from action.” says Krishna in the third chapter of the Gita.
“Arjuna! Every deed or activity has a beginning and an end. But desireless action (karma) has no such. That
is the difference between the two. When action is done with a view to the gain therefrom, one has to suffer the
loss, the pain, and even the punishment. But desireless action frees you from all these.
“Desire the fruits of action, and get born again and again, caught up in that desire. Give up that desire, and you are liberated from the flux. The practice of this type of renunciation ends the state of bondage. The main point is to stick to the goal. The goal is action, not its fruit.

Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 4

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