गीता वाहिनी सूत्र- ७ ||Geetha Vahini- 7 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti || Self Surrender


शरणागति के तीन प्रकार है तवैवाहम् (मैं तेरा हूं), माम् एव त्वम् (तू मेरा है), त्वमेव अहम्  (तू मैं हूं)। प्रथम निश्चय करता है कि मैं तेरा हूं, दूसरा स्थापित करता है तू मेरा है और तीसरा प्रकट करता है कि तुम और मैं एक ही हैं, अभिन्न हैं। क्रमानुसार प्रत्येक आगे की सीढ़ी है और अंतिम सबसे श्रेष्ठ है।
प्रथम अवस्था तवैवाहम् में भगवान पूर्ण स्वतंत्र है और भक्त पूर्ण बंधन में है। जैसे बिल्ली और उसका बच्चा, बिल्ली जहां मन चाहे बच्चे को उठा कर रखती है। बच्चा सिर्फ म्याऊं म्याऊं करता और उसके साथ जो कुछ भी होता है स्वीकार करता है। यह ढंग बहुत ही सौम्य और सभी को प्राप्त हो सकता है, दूसरी अवस्था एवं में भक्त भगवान को जो कि अब तक स्वतंत्र था, बांध लेता है। सूरदास इसका उदाहरण है, जिन्होंने कहा "कृष्ण! तुम मेरी पकड़ से इन बाहों के बंधन से छूट सकते हो, लेकिन तुम मेरे हृदय में से जहां मैंने तुम्हें बांध रखा है नहीं निकल सकते।" भगवान् मुस्कुरा कर मान गए। क्योंकि मैं अपने भक्तों के बंधन में हूं बिना मानहानि का विचार रखें वे मानते हैं कि प्रेम विह्वल और अहंकार रहित भक्त उन्हें अपनी भक्ति से बांध सकता है। व्यक्ति जब इस प्रकार की भक्ति से परिपूर्ण हो तब भगवान स्वयं उसकी सब आवश्यकताएं पूरी करते हैं। इनके अनुग्रह से उसकी सब इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। यह याद करो कि भगवान ने गीता में क्या वचन दिया था - "योगक्षेमं वहाम्यहम्" इसकी कुशलता का भार मैं बहन करता हूं।

अब तीसरी अवस्था - "त्वमेव अहम् इति त्रियाः" यह अविभक्त भक्ति है। भक्त भगवान को अपना सब कुछ और स्वयं को भी समर्पित करता है, क्योंकि अब वह अपने को रोक नहीं सकता। यही पूर्ण समर्पण हो जाता है।

त्वमेव अहम् की भावना अद्वैतिक शरणागति है। उसका आधार यह सब 'इदं' वसुदेव ही है ( वासुदेवः सर्वमिदम् ), इससे कम या अन्य कुछ नहीं, का ज्ञान ही है। जब तक देह का भान रहता है, भक्त सेवक और भगवान स्वामी होते हैं। जब तक भक्त दूसरे जीवों से अपने को भिन्न समझता है, वह भगवान की पूर्णता का एक हिस्सा ही बना रहता है। लेकिन जब वह और ऊँची अवस्था में होता है और शरीर व मैं और मेरा की सीमा से भी परे पहुंच जाता है, जब भगवान और भक्त का भेदभाव बैठ कर दोनों एक रूप हो जाते हैं। रामायण में हनुमान ने भक्ति की इसी तीसरी अवस्था को प्राप्त किया था।
श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय ३ पृष्ठ २७-२८

There are three types of self-surrender: I am Thine, Thou art mine, and Thou art I. The first affirms, I am Yours; the second asserts, You are mine; the third declares, You and I are One, the same. Each is just a step in the
rising series, and the last is the highest step of all.
In the first stage (I am Thine), the Lord is fully free and the devotee is fully bound. It is like the cat and the kitten; the cat shifts the kitten about as it wills, and the kitten just mews and accepts whatever happens. This attitude is very gentle and is within easy reach of all.
In the second stage (Thou art mine), the devotee binds the Lord, who is to that extent “not free”! Surdas is a good example of this attitude. “Krishna! You may escape from my hold, from the clasp of these arms; but you
cannot escape from my heart, where I have bound you,” challenged Surdas. The Lord just smiled and assented; for, “I am bound by My devotees,” He asserts, without any loss of self-respect. The devotee can tie up the Lord with love, by devotion that overwhelms and overpowers egotism. When one is full of this type of devotion, the
Lord Himself will bless one with everything one needs; His grace will fulfil all one’s wants. Remind yourself here of the promise made by the Lord in the Gita: “I carry the burden of his welfare (Yogakshemam vahaamyaham)”.
Next, about the third stage (Thou art I).
This is inseparable devotion. The devotee offers all to the Lord, including themself, for the devotee feels unable to withhold themself. That completes the surrender.
The “Thou art I” feeling is non-dual surrender, based on the realization that all this (idam) is God (Vaasudeva) and nothing less, nothing else. As long as consciousness of the body persists, the devotee is the servant and the Lord is master. As long as the individual feels separate from other individuals, the devotee is a part and the Lord is the whole. When the devotee progresses to the state beyond the limits of the body as well as of “I” and “Mine”, then there is no more distinction; devotee and God are the same. In the Ramayana, Hanuman achieved this third stage through devotion.

Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 3

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