गीता वाहिनी सूत्र -१० || Geetha Vahini -10 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।
याद रखो! मैं तुम्हें यह भी कहना चाहता हूं कि ऐसा कोई भी समय नहीं था जब मैं नहीं था। इतना भी नहीं ऐसा भी समय नहीं था जब तुम और यह सब राजा और राजकुमार नहीं थे। 'तत्' परमात्मा है 'त्वम्' जीवात्मा है, दोनों एक थे, एक है और सर्वदा के लिए एक रहेंगे। घड़े के निर्माण से पूर्व घड़े में और घड़े के पश्चात मिट्टी थी, है और रहेगी।
इन उपदेशों के प्रभाव से अर्जुन को चैतन्य लाभ हुआ और वह जागृत हुआ। उसने कहा "हो सकता है आप परमात्मा है, हो सकता है आप अविनाशी है"। मैं आपके लिए नहीं रो रहा हूं, लेकिन अपने जैसों के लिए रोता हूं, जो कल थे, आज है, कल चले जाएंगे। हमारा क्या होता है ? कृपया मुझे यह स्पष्ट समझाइए।
यहां एक विषय पर सावधानीपूर्वक ध्यान दो। तत् अर्थात् परमात्मा नित्य है; इसे सभी मानते हैं। लेकिन त्वम् भी, व्यक्ति भी, परमात्मा है। (असि) वह भी नित्य है, क्योंकि इसे इतना शीघ्र सरलता से नहीं समझा जा सकता, कृष्ण ने इसे विस्तार-पूर्वक समझाया और कहा "अर्जुन! तुम भी परमात्मा की तरह नित्य वह पूर्ण हो। सीमित करने वाले आवरणों को हटाने से व्यक्ति ही सर्वव्यापी हो जाता है। गहना बनने से पूर्व सोना था, गहना बना तब भी सोना है और गहने का नाम रूप मिट जाने पर भी सोना ही रहता है। आत्मा इस प्रकार नित्य रहती है, शरीर रहे या ना रहे।
आत्मा का संबंध शरीर से रहने पर भी, वह गुणों और धर्मों से प्रभावित रहती है; अर्थात आत्मा गुण रहित और लक्षण रहित है। शरीर में होने वाली परिवर्तन जैसे शिशु से लड़का, लड़के से युवा, युवा से प्रौढ़ और उससे वृद्ध होने का तुम पर कोई प्रभाव नहीं होता, शरीर में इतने परिवर्तन होने पर भी तुम नित्य निरंतर रहते हो। शरीर के नष्ट होने पर भी तुम, जो कि आत्मा हो, नित्य और निरंतर हो। इसलिए कोई भी वीर इस मृत्यु नामक परिवर्तन के लिए शोक से पीड़ित नहीं होगा। कृष्ण ने यह बात इतने आवेश में कहीं की पूरा रथ कांपने लगा।
श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय ३ पृष्ठ ३३-३४
“Let Me tell you this also. There was never a time when I was not. Why? There was never a time when even
you and all these kings and princes were not. That (the Godhead, Thath) is the highest Atma (Paramatma); This
(the individual, thwam) is the soul (jivatma); both were the same, are the same, and will be forever. Prior to the
pot, in the pot, and after the pot, it was, is, and will be clay.”
Arjuna was shocked into awareness and wakefulness by all this. He said, “Maybe You are God; maybe You are indestructible. I weep not for You but for such as us: we came yesterday, are present today, and are off tomorrow. What happens to us? Please enlighten me.”
One point has to be carefully noticed here. That (Thath), that is, the Godhead, is eternal; everyone accepts it.
But the individual (thwam) is also the Godhead! It too is eternal, although it cannot be grasped as easily or quickly.
So Krishna elaborates this and says, “Arjuna! You too are as eternal as the Absolute. Seen apart from the limitations, the individual is the Universal. Prior to the appearance of the jewel, there was just gold; during the existence of the jewel, there is just gold; and after the name-form of the jewel has gone, the gold persists. The Atma persists
in the same way, body or no body.
“Although it is associated with the body, the Atma is unaffected by qualities (gunas) and dharmas; it has no qualities and characteristics. You are unaffected by the changes that the body undergoes when you grow from an infant to a boy, from a boy to a youth, from a youth to a middle-aged man, and thence to an old man. You persist,
in spite of all this. It is the same when the body is destroyed; the Atma persists. So the hero will not pine for the
change called death.” Krishna said this with such emphasis that the chariot shook!
Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 3
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