गीता वाहिनी सूत्र - १५ || Geetha Vahini -15 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti festival


कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।

भगवान ने गीता में बताया है, "फल को अस्वीकार करो" (मा फलेषु) अर्थात् कर्म से फल तो मिलता ही है। लेकिन कर्ता को फल की इच्छा से या उसकी फल प्राप्ति को ही दृष्टि में रखकर कार्य नहीं करना चाहिए। यदि कृष्ण का आशय यह होता कि कर्ता को फल प्राप्ति का अधिकार नहीं है तो उन्होंने कहा होता, "इसका फल नहीं है" ना फलेषु (ना का अर्थ नहीं) इसलिए यदि तुम कर्म ही ना करो तो यह भगवान के निर्देशों का उल्लंघन और एक गंभीर भूल होगी। मनुष्य को जब कर्म करने का अधिकार है तो उसका फल-प्राप्ति पर भी अधिकार है। इस अधिकार को कोई भी अमान्य या अस्वीकार नहीं कर सकता। लेकिन फिर भी कर्ता स्वेच्छापूर्वक व दृढ़ता से अपने कर्म या बुरे फल से प्रभावित होना अस्वीकार कर सकता है। गीता मार्ग-दर्शन करती है, '"कर्म करो, फल को अस्वीकार करो।" कर्म के फल की इच्छा करना रजोगुण का लक्षण है। फल से कोई लाभ नहीं मिलेगा ऐसा सोचकर कर्म ही का त्याग करना, तमोगुण का लक्षण है। कर्म से फल प्राप्ति होगी यह जानते हुए भी उस फल की प्राप्ति में आसक्ति न रखना ही सत्वगुण है।

श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय ५ पृष्ठ ४४,४५

The Lord has said in the Gita, “refuse the fruit (maa phaleshu)” —that is to say, the deed yields
results, but the doer should not desire the result or do it with the result in view. If Krishna’s intention was to say
that the doer has no right to the fruit, He would have said, “It is fruitless (na phaleshu —na meaning no)”. So if you desist from action (karma), you will be transgressing the Lord’s command. That would be a serious mistake.
When one has a right to engage in action (karma), one has a right also to the fruit; nobody can deny this or refuse this right. But doers can, out of their own free will and determination, refuse to be affected by the result, whether favourable or unfavourable. The Gita shows the way: “Do —but don’t be attached to the consequence.”
The desire for the result of your action is a sign of passion (rajoguna). The giving up of action because you can not benefit by the fruit is a sign of dullness (thamoguna). To engage in action, to know that the result will follow,
and yet not to be attached to it or concerned with it —that is the sign of the quality of purity and serenity (sathwaguna).

Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 5

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