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Showing posts from December, 2018

गीता वाहिनी सूत्र - २५ || Geetha Vahini -25 ||Sri Sathya Sai Baba || सहज कर्म

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सहज कर्म केवल धर्म में ही, जो कि तुम्हारा स्वभाव है, तुम्हें धीरज रखना चाहिए। यदि कर्म को कर्तव्य का बोझ ही मानोगे तो कष्ट और कठिन परिश्रम सहन नहीं कर सकोगे। अस्वाभाविक व अपनाए हुए कर्म अ-सहज कर्म कहलाते हैं और अपने सच्चे स्वभाव को प्रकट करने वाले कर्म सहज कर्म कहलाते हैं। सहज कर्म तो आसान प्रतीत होंगे और अ-सहज कर्म हमेशा बोझिल लगेंगे। अ-सहज कर्म से अहंकार या "मैं कर्ता हूँ"  की भावना उत्पन्न होकर परिणामस्वरूप थकान या घमंड, घृणा या धृष्टता प्रकट होगी।  इस एक विषय पर विचार करो। व्यक्ति जब स्वस्थ होता है तब कोई भी उसकी कुशलता के बारे में नहीं पूछेगा। लेकिन बीमार या दुःख होने पर सभी पूछेंगे कि क्या हुआ और फिर चिंता युक्त प्रश्नों की झड़ी बांध देंगे। लेकिन यह चिंता क्यों ? मूल रूप में मनुष्य आनंदमय और सुखी है। आनंद उसका स्वभाव है। यही उसका सहज स्वभाव है। इसलिए जब वह खुश और स्वस्थ होता है तो किसी को आश्चर्य या चिंता नहीं होती, लेकिन शोक और पीड़ा उसके लिए अस्वाभाविक है। एक भ्रम के परिणामस्वरूप उसका स्वभाव उनसे घिर गया है। इसीलिए लोग चिंतित होकर यह पता लगाना चाहते हैं ...

गीता वाहिनी सूत्र - २४ || Geetha Vahini - 24 || Sri Sathya Sai Baba || मुक्ति का सीधा मार्ग

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मुक्ति का सीधा मार्ग ( Direct road to Liberation) मुक्ति के लिए ज्ञान सीधा मार्ग है। इसलिए इसकी पवित्रता अतुलनीय घोषित की है। इससे यह स्वाभाविक सिद्ध होता है की अज्ञान ही यथार्थ में अत्यंत घृणित है। "सर्वव्यापक को विशिष्ट में देखो, विशिष्ट को सर्वव्यापक में;" यह ज्ञान का निष्कर्ष है, कृष्ण ने कहा, "सब क्षेत्र केवल एक क्षेत्रज्ञ को जानते हैं और वह कौन है ? आत्मा, अर्थात तुम, स्वयं तुम ! यह जान लेने से तुम ज्ञानी बन जाओगे, इसलिए समझ लो कि आत्मा परमात्मा है ; यह विज्ञान है।" कृष्ण जो कि सर्वज्ञ थे, अर्जुन के मन से अब संदेह हटा देने के लिए उसे योग की शिक्षा देने लगे। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ६ पृष्ठ ५६ For achieving liberation, wisdom is the direct road. Hence, it is declared to be incomparably sacred. Naturally, it follows that ignorance is indubitably the most despicable. “See the universal in the particular; see the particular in the universal; that is the essence of wisdom”, said Krishna. “All bodies know only one single knower of the bodies....

गीता वाहिनी सूत्र - २३ || Geetha Vahini - 23 || Sri Sathya Sai Baba || ज्ञान का रहस्य

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ज्ञान का रहस्य भगवद्गीता के उपदेश में ज्ञान योग एक अमूल्य रत्न की तरह चमकता है। कृष्ण ने सूचित किया नहीं किया, "नहि ज्ञानेन सदृशम्  पवित्रमिह विद्यते" (यहाँ ज्ञान के समान पवित्र अन्य नहीं जान पड़ता) आगे, सातवें अध्याय में उन्होंने कहा है, "ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्" (ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप है, मेरा यह मत है)। इसी तरह ज्ञान योग की श्रेष्ठता गीता के अन्य संदर्भ में विभिन्न प्रकार से व्यक्त की गई है। इसलिए ज्ञान योग आध्यात्मिक साधनों में अधिक फलप्रद है। सब शास्त्र केवल ज्ञान में ही अपना पर्यवसान सिद्ध करते हैं। ज्ञान स्वरूप का चिंतन ही ध्यान है; यही व्यक्ति का सत्य स्वरूप है। सब तुम में हैं, तुम सब में हो। यह विश्वास तुम्हें अपनी चेतना में विश्लेषण, विवेक बुद्धि और मानसिक शोध द्वारा दृढ़ कर लेना है। तुम्हें इंद्रियों, मन और बुद्धि इत्यादि, प्रभावों की छाप को अपनी चेतना से अलग कर हटा देना है। इनका आत्मा से, जो कि वास्तव में तुम ही हो, कोई संबंध नहीं होता। आत्मा किसी भी विषय और वस्तु से प्रभावित नहीं होती। यदि इंद्रिय मन बुद्धि इत्यादि कार्य करना बंद भी ...

गीता वाहिनी सूत्र -२२ || Geetha Vahini - 22 ||Sri Sathya Sai Baba || Kama

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काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ।। तब अर्जुन के एक और प्रश्न का उत्तर  कृष्ण ने दिया, "सब पापों की जड़ काम है" और उन्होंने इसके लक्षण कारण और उपायों को विस्तृत रूप से स्पष्ट किया, "जो देहात्म बुद्धि से बंधा है उसे कर्म विजय की आशा छोड़ देनी चाहिए। ब्रह्मात्म बुद्धि प्राप्त करने पर ही कर्म पर विजय निश्चित होती है। प्रत्येक कार्य भगवान को समर्पित भाव से ही करना चाहिए। समस्त संसार को विष्णु रूप ही समझना चाहिए जो कि जगदातीत है।" इस अध्याय में तीन मुख्य विषयों को स्पष्ट किया गया है (१) कर्म सभी को करना है, नहीं तो संसार का अस्तित्व नहीं रहेगा (२) महान पुरुषों के कर्म का आदर्श सामने रख अन्य सब कर्म करें (३) लगभग सभी कर्म के कर्तव्य से बंधे हैं। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ६ पृष्ठ ५४ Then, in reply to another question of Arjuna, Krishna said, “Desire (kama) is the root cause of all evil”, and He elaborated on its nature, cause, and cure. “Those who are bound by the false idea that they are just this body and ...

गीता वाहिनी सूत्र - २१ || Geetha Vahini - 21 || Sri Sathya Sai Baba || Karma Yoga

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       श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ कर्मयोग  न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥  (२२) "अर्जुन! इस पर विचार करो! मुझे कोई कर्म करना आवश्यक नहीं है। नहीं, पूरे त्रिलोक में कहीं भी नहीं। मैं किसी बंधन में नहीं हूं। फिर भी मैं कर्म में व्यस्त हूं। इस पर ध्यान दो। यदि मैं कर्म न करूं तो संसार ही नहीं रहेगा। आत्मा में दृढ़ विश्वास रखो। फिर अपने सब कर्म मुझे समर्पित कर दो। कर्म के फल की इच्छा के बिना अधिकार भावना या अहंकार रहित होकर युद्ध करो," कृष्ण ने कहा।  "अर्जुन! केवल एक यथार्थ पर ध्यान दो। तुम्हारे शरीर का तापमान इस समय कितना है? शायद ९८ अंश होगा; यह कैसे हुआ ? क्योंकि इतनी दूरी पर सूर्य इससे अनेक करोड़ों गुना ताप झेल रहा है। ठीक है न ? अब यदि सूर्य सोचे कि इतनी ऊष्णता वह सहन नहीं कर सकता और फिर यह ठंडा पड़ जाए तो मनुष्यों का क्या होगा ? पुनः यदि सृष्टि में और उसके द्वारा किए जाने वाले बृहत विश्वकर्म के कार्यों को मैं न करूं, तो कल्पना कर सकते हो कैसा अंत होगा ? याद रखो, मैं इसी कारण कर्म करता...

गीता वाहिनी सूत्र -२० || Geetha Vahini -20 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti festival || Yajna

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                      श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः । तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥ (९) अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ (१४) कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥ (१५)           यज्ञ "जो कर्म परिणाम में बंधन दायक नहीं हैं, उन्हें यज्ञ कहा जाता है। अन्य सब कर्म बंधन कारी है"। "ओह! अर्जुन! सब मोह छोड़कर प्रत्येक कार्य को भगवान को समर्पित यज्ञ मानकर करो।" कृष्ण ने अर्जुन को कर्म के उत्पत्ति स्थान, कर्म की जड़, जहां से कर्म करने की उत्कंठा निकलती है और बढ़ती है, उस पर उपदेश दिया। उन्होंने इसे इतना स्पष्ट समझाया कि अर्जुन का हृदय वास्तव में प्रेरित होकर बदलने लगा। "वेदों की उत्पत्ति परमात्मा से, वेद से कर्म, कर्म से यज्ञ, यज्ञ से वर्षा और वर्षा से अन्न उत्पन्न हुआ; इस प्रकार अन्न से सब जीवित प्राणी बने। इस कालक्रम को आदर पूर्वक मानना होगा...

गीता वाहिनी सूत्र - १९ || Geetha Vahini - 19 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti festival || स्थितप्रज्ञ

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                        स्थितप्रज्ञ या निशा सर्वभूतानाम् तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।। पूर्णतया इंद्रिय निग्रह करना ही चाहिए। व्यक्ति की स्थित प्रज्ञता का यही प्रधान लक्षण है। इसलिए जब सबके लिए रात्रि होती है, स्थितप्रज्ञ जागृत रहता है; और जब सब जागृत रहते हैं, स्थितप्रज्ञ सोता है। शब्दानुसार इसका अर्थ होगा कि एक के लिए जो रात्रि है वह दूसरे के लिए दिन है; ऐसा कहना हास्यास्पद भी लगेगा और अर्थ यह निकलेगा कि स्थितप्रज्ञ वह है जो दिन में सोता है और रात में जागता है। लेकिन इस कर इस कथन का आंतरिक अर्थ बहुत गहरा है। इंद्रिय विषयक सांसारिक मामलों में साधारण मनुष्य बहुत सचेत रहता है। उनकी ऐसी सतर्कता जो कि इंद्रिय विषयक वस्तुओं का पीछा करने में रखी जाती है उसे उनकी 'जागृति' कहा है। लेकिन इसके विपरीत स्थितप्रज्ञ का ऐसे लगाव से कोई संबंध नहीं होता, तो इसे कहा जाए कि "तब वह सोता है"। सोने का क्या अर्थ क्या है ? इंद्रिय निग्रह से जो आनंद प्राप्त होता है यही इसका अर्थ है और जागृति क्या है ? यहां...

गीता वाहिनी सूत्र -१८ || Geetha Vahini -18 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti festival || स्थितप्रज्ञ

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                    स्थितप्रज्ञ           श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २ दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ (५६) यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ । नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (५७) यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (५८) विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥ (५९) सुख या शोक का तीन प्रकार से सामना किया जाता है। (१) आध्यात्मिक (२) आधिभौतिक (३) आधिदैविक सब जानते हैं कि पाप से दुख और सत्कार्यों से सुख प्राप्त होता है। इसलिए अच्छे कार्य करने की और पाप न करने की सलाह दी जाती है। लेकिन जो स्थितप्रज्ञ है, उसे न तो दुख की पीड़ा और न आनंद का रोमांच अनुभव होता है। वह न तो किसी से घृणा करता है न किसी से स्नेह; न वह दुख आने पर पीछे हटता है ना सुख प्राप्ति के लिए आगे लपकता है। जिन्हें आत्मज्ञान नहीं है, वही सुख आने पर प्रफुल्लित और...

गीता वाहिनी सूत्र - १७ || Geetha Vahini -17 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti festival || Power of Mind ( मनःशक्ति)

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    मनःशक्ति ( Power of Mind) मनःशक्ति एक प्रबल विद्युत शक्ति की तरह है। इसको दूर से ही देखना चाहिए। इसको छूने या संपर्क में नहीं आना चाहिए। छू कर देखो; तुम्हारी राख बन जाएगी। इस प्रकार संपर्क या मोह से, मन को तुम्हें नष्ट करने का मौका मिल जाता है। तुम्हारा इससे दूर ही रहना अच्छा है। चतुराई से अपनी भलाई के लिए ही इसका उचित उपयोग करना चाहिए। जिस परम सुख में स्थितप्रज्ञ डूबा रहता है वह उसे बाह्य वस्तुओं से नहीं मिलता और उसे बाह्य सुख की आवश्यकता भी नहीं है। आनंद, प्रत्येक के स्वभाव का हिस्सा है। जिनके चित्त शुद्ध हैं उन्हें आत्मा में, आत्म साक्षात्कार द्वारा ही परम आनंद मिलता है। यह आनंद निज की कमाई है। यह प्रत्यक्ष है इसका अनुभव व्यक्ति स्वयं ही करता है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ५ पृष्ठ ४७ The faculty of the mind is like a strong current of electricity. It has to be watched from a distance and not be contacted or touched. Touch the current, and you are reduced to ashes. So too, contact and attachment give the mind the chance to ruin you. The farther yo...

गीता वाहिनी सूत्र -१६ || Geetha Vahini -16 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti festival || स्थितप्रज्ञ

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                                            स्थितप्रज्ञ प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।। जब अर्जुन स्थितप्रज्ञ के सच्चे लक्षण जानने की आग्रहपूर्वक प्रार्थना की तब केशव ने उत्तर दिया, "पार्थ!  स्थितप्रज्ञ सब इच्छाओं से मुक्त रहकर केवल आत्मज्ञान और आत्म चैतन्य में स्थिर रहता है।" इसकी दो विधियां है मन में उठने वाली इच्छाओं की सब उत्तेजनाओं का त्याग निषेधात्मक विधि है। मन में नित्य निरंतर आनंद स्थिर रखना पूर्ण धनात्मक विधि है। निषेधात्मक क्रिया मन की बुराइयों और दुष्टता के सब बीज हटाने के लिए है। इस प्रकार शुद्ध किए गए क्षेत्र में भगवान के प्रति आसक्ति उत्पन्न करके तुम्हारे लिए आवश्यक कृषि की फसल उत्पन्न करने के लिए पूर्ण विधि है। घास पात उखाड़ फेंकना निषेधात्मक क्रिया है। बाह्य पदार्थ विषयक संसार से इंद्रियों द्वारा प्राप्त सुख घास पात की तरह है। कृषि की उपज भगवान में आसक्ति है। मन इच्छाओं की गठरी है, इन इच्...

गीता वाहिनी सूत्र - १५ || Geetha Vahini -15 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti festival

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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।। भगवान ने गीता में बताया है, "फल को अस्वीकार करो" (मा फलेषु) अर्थात् कर्म से फल तो मिलता ही है। लेकिन कर्ता को फल की इच्छा से या उसकी फल प्राप्ति को ही दृष्टि में रखकर कार्य नहीं करना चाहिए। यदि कृष्ण का आशय यह होता कि कर्ता को फल प्राप्ति का अधिकार नहीं है तो उन्होंने कहा होता, "इसका फल नहीं है" ना फलेषु (ना का अर्थ नहीं) इसलिए यदि तुम कर्म ही ना करो तो यह भगवान के निर्देशों का उल्लंघन और एक गंभीर भूल होगी। मनुष्य को जब कर्म करने का अधिकार है तो उसका फल-प्राप्ति पर भी अधिकार है। इस अधिकार को कोई भी अमान्य या अस्वीकार नहीं कर सकता। लेकिन फिर भी कर्ता स्वेच्छापूर्वक व दृढ़ता से अपने कर्म या बुरे फल से प्रभावित होना अस्वीकार कर सकता है। गीता मार्ग-दर्शन करती है, '"कर्म करो, फल को अस्वीकार करो।" कर्म के फल की इच्छा करना रजोगुण का लक्षण है। फल से कोई लाभ नहीं मिलेगा ऐसा सोचकर कर्म ही का त्याग करना, तमोगुण का लक्षण है। कर्म से फल प्राप्ति होगी यह जानते हुए भी उस फल की प्रा...

गीता वाहिनी सूत्र - १४ || Geetha Vahini -14 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti festival

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बुद्धि से युक्त होकर उसकी पूर्ण चेतनता में कर्म फल की प्राप्ति के त्याग को कृष्ण "बुद्धि योग" कहते हैं। बुद्धि शुद्ध और प्रशिक्षित करनी होगी अन्यथा कर्मफल मोह का त्याग और कार्यों को कर्तव्य या समर्पण समझ कर करना असंभव हो जाएगा। ऐसी शुद्ध बुद्धि का नाम "योग बुद्धि" है। इसको पुष्ट कर अपने को कर्म के बंधनों से मुक्त करो। सत्य तो यह है कि तुम, वास्तविक 'तुम' कर्म से ऊंचे और परे हो। तुम यह कहते हो कि कर्म के फलों का त्याग करना कठिन है, इससे तो मैं कर्म ही नहीं करूंगा। लेकिन यह असंभव बात है। कर्म करना अनिवार्य है। कोई ना कोई कार्य तो करना ही होता है। एक क्षण के लिए भी कोई अपने को कर्म से रहित नहीं कर पाता। "न हि कश्चित्क्षणमपि" गीता के तीसरे अध्याय कृष्ण ने कहा है। "अर्जुन! प्रत्येक कार्य या कर्म का आरंभ और अंत होता है। लेकिन निष्काम कर्म आरंभ और अंत रहित है। दोनों में यही भेद है। जब लाभ प्राप्ति की इच्छा से कर्म किया जाता है तब व्यक्ति को हानि, दुःख और दर्द भी भुगतना पड़ता है। लेकिन निष्काम कर्म तुम्हें इन सब से मुक्त रखता है। कर्म फल की...

गीता वाहिनी सूत्र १३ || Geetha Vahini 13 || Sri Sathya Sai Baba ||Geeta Jayanti

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"धी" का अर्थ है "बुद्धि"। जिसमें यह गुण है वही पूर्ण 'पुरुष' है। पुरुष की पहचान वस्त्र या मूंछों से नहीं होती। जो द्वंद्वात्मक जगत के परे रहता है वहीं पुरुष है। ऐसी पदवी पाने के लिए उसे बाह्य शत्रुओं के बदले आंतरिक शत्रुओं पर विजय पानी चाहिए। सुख और दुःख के इन युग्म शत्रुओं पर विजय पाना ही वीरता है। अच्छा! तुम्हारी मन में एक और संदेह उठा होगा। तुम अब भी पूछोगे "ऐसी विजय से क्या लाभ होगा?" मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि इससे तुम्हें अमरता प्राप्त होगी। संसार की कोई भी वस्तु ऐसा परमानंद नहीं दे सकती। उनसे केवल आंशिक सुख मिल सकता है, लेकिन पूर्ण परमानंद नहीं। जब तुम सुख और दुःख से परे, उससे ऊंची अवस्था को प्राप्त करते हो, तभी पूर्ण स्वतंत्र परमानंद का लाभ पा सकते हो। "अर्जुन! तुम पुरुषों में श्रेष्ठ हो इसलिए तुम्हें क्षुद्र सांसारिक शत्रुओं पर विजय पाने की आवश्यकता नहीं है। तुम तो अमरता का परम सुख पाने के योग्य हो।" श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ४ पृष्ठ ३९ “Dhee means intelligence; it is the quality that makes a person ...

गीता वाहिनी सूत्र -१२ || Geetha Vahini -12 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti || सुख दुःख

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सुख दुःख  साधारणतया मनुष्य सुख और आनंद ही चाहता है। कैसा भी दबाव हो वह दुःख और शोक नहीं चाहता। सुख और आनंद को ही वह अपना निकटतम शुभचिंतक समझता है, और दुःख और शोक उसको भयानक दुश्मन से लगते हैं। यह एक बहुत बड़ी भूल है। सुख की अवस्था में शोक का खतरा है, उस सुख के छिन जाने का भय मनुष्य का सदा पीछा करता रहता है। दुःख जांच-पड़ताल विवेक और आत्म परीक्षण का प्रेरक है, और बुरी से बुरी घटनाओं के होने का भय दिखाता है। वह तुम्हें आलस्य और अभिमान की निद्रा से जगाता है। मनुष्य होने के नाते अपने कर्तव्यों को सुखी मनुष्य भूल जाता है। सुख उसे अहंकार की ओर ले जाकर उसे अहंकार जन्य पाप करवाता है। दुःख ही उसे सतर्क और तत्पर बनाता है।  इसलिए दुःख ही सच्चा मित्र है। अच्छे कर्मों के संचित मूलधन को सुख खर्च कर देता है और हीन प्रवृत्तियों को उकसाता है। वास्तव में सच्चा दुश्मन वही है। मनुष्य को वास्तविकता का ज्ञान दुःख ही दिलाता है, वही विचार शक्ति को विकसित कर आत्मोन्नति करता है। नए व अमूल्य अनुभव देता है। सुख तो सशक्त बनाने वाले अनुभवों पर पर्दा डाल देता है। इसीलिए कष्ट और दुःख को मित्र समझना...

गीता वाहिनी सूत्र -११ || Geetha Vahini -11 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti || तितिक्षा

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मात्रास्पर्शास्तु कौंतेय शीतोष्ण  सुखदुःखदा।। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। 'तितिक्षा' का अर्थ है विरोधी भावों के निरंतर संघर्ष के बीच मानसिक शांति बनाए रखना। शक्तिशाली का यह विशिष्ट अधिकार है। वीर की यही दौलत है। अशक्त व्यक्ति कभी कभी स्थिर चित्त नहीं हो सकते, व्याकुल होने पर मोर पंख की तरह इधर निरंतर रंग पलटते रहते हैं। घड़ी के अंदर की तरह कभी इधर, कभी उधर, कभी आनन्द की ओर कभी शोक की ओर झूलते हैं। यहां एक विषय पर ध्यान देना होगा सहनशीलता धैर्य से भिन्न है। तितिक्षा का अर्थ भी 'सहन' नहीं है 'सहन' अर्थात सहन करना, निर्वाह करना क्योंकि और कोई अन्य मार्ग नहीं है। उसको जीतने की क्षमता रखते हुए भी उसकी परवाह ना करना इसी को आध्यात्मिक अनुशासन कहते हैं। धैर्य पूर्वक बाह्य सांसारिक द्वैतता को आंतरिक स्थिरचित्तता और शांति के साथ सहना -- यही मुक्ति का मार्ग है। विवेक बुद्धि द्वारा सूक्ष्म परीक्षण कर सब सहना, इसी प्रकार का सहना फलप्रद है। ( ऐसे परीक्षण का नाम विवेक है। इसका अर्थ है "आगमापायिनः" बाह्य संसार के स्वभाव को, इस वस्तु संसार को और...

गीता वाहिनी सूत्र -१० || Geetha Vahini -10 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti

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न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।। याद रखो! मैं तुम्हें यह भी कहना चाहता हूं कि ऐसा कोई भी समय नहीं था जब मैं नहीं था। इतना भी नहीं ऐसा भी समय नहीं था जब तुम और यह सब राजा और राजकुमार नहीं थे। 'तत्' परमात्मा है 'त्वम्' जीवात्मा है, दोनों एक थे, एक है और सर्वदा के लिए एक रहेंगे। घड़े के निर्माण से पूर्व घड़े में और घड़े के पश्चात मिट्टी थी, है और रहेगी। इन उपदेशों के प्रभाव से अर्जुन को चैतन्य लाभ हुआ और वह जागृत हुआ। उसने कहा "हो सकता है आप परमात्मा है, हो सकता है आप अविनाशी है"। मैं आपके लिए नहीं रो रहा हूं, लेकिन अपने जैसों के लिए रोता हूं, जो कल थे, आज है, कल चले जाएंगे। हमारा क्या होता है ? कृपया मुझे यह स्पष्ट समझाइए। यहां एक विषय पर सावधानीपूर्वक ध्यान दो। तत् अर्थात् परमात्मा नित्य है; इसे सभी मानते हैं। लेकिन त्वम्  भी,  व्यक्ति भी, परमात्मा है। (असि) वह भी नित्य है, क्योंकि इसे इतना शीघ्र सरलता से नहीं समझा जा सकता, कृष्ण ने इसे विस्तार-पूर्वक समझाया और कहा "अर्जुन! तुम भी परमात्मा की तरह नि...

गीता वाहिनी सूत्र -९ || Geetha Vahini - 9 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti || धीरस्तत्र न मुह्यति

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                धीरस्तत्र न मुह्यति देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।। कृष्ण ने कहा कि "धीरस्तत्र न मुह्यति"  जो धीर पुरुष है इस विषय के भ्रम में नहीं पड़ते। कृष्ण यह नहीं कहते अर्जुन को इस से भ्रमित नहीं होना चाहिए, वह तो सब अस्थिर मन वालों को शिक्षा देना चाहते थे। संदेह के उठते ही कृष्ण ने प्रत्येक संदेह का निवारण किया। उन्होंने कहा अर्जुन इन 3 अवस्थाओं में से होकर जाते समय बुद्धि कुछ घटनाओं को अपनी पकड़ में रखती हैं, लेकिन शरीर की मृत अवस्था होने पर वह भी नष्ट हो जाती है, और एक ही झटके में सब विस्मृत हो जाता है। स्मरण शक्ति बुद्धि की क्रिया है आत्मा कि नहीं। विचार करो कि अभी तुम निश्चित रूप से यह नहीं बता सकते कि अमुक दिन ठीक 10 वर्ष पूर्व कहां थे। लेकिन 10 वर्ष पूर्व तुम थे, इसमें कोई संशय नहीं। नहीं थे, ऐसा नहीं कह सकते। तुम्हारे पूर्व जन्म की भी यही बात है। तब तुम थे, लेकिन ठीक - ठीक याद नहीं कर पाते कि कैसे और कहां थे। बुद्धिमान मनुष्य ऐसे संदेशों से न तो भ्रमित होता है और न व...

गीता वाहिनी सूत्र - ८ || Geetha Vahini -8 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti || दुःखों का वास्तविक कारण

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                   दुःखों का वास्तविक कारण सब दुखों का वास्तविक कारण क्या है ? शरीर का मोह ही दुखों का कारण है। मोह से शोक, शोक से उसके निकट संबंधी स्नेह और तिरस्कार उत्पन्न होते हैं। यह दोनों ऐसी बुद्धि के परिणाम है जो कुछ वस्तु और स्थितियों को लाभकारी समझती है और अन्य कुछ वस्तुस्थितियों को अलाभकारी। ऐसा लाभ और हानि का विचार केवल भ्रम है। फिर भी लाभकारी वस्तु में तुम्हारी आसक्ति होती है, और अन्य सबसे तुम्हें घृणा होती है। जहां एक है वहां दो दीखने का कारण माया या अज्ञान है। जिस अज्ञान ने अर्जुन को शोक में डुबोया था मैं इसी प्रकार का था; जहां केवल एक है वहां अनेक देखना। 'तत्वम' अर्थात आत्मा और परमात्मा की एकरूपता का ज्ञान ना होना ही समस्त अज्ञान का कारण है। इस सत्य को न सीखने वाला मनुष्य इस शोक संसार में गोते खाता रहता है। लेकिन जो इसे सीख कर इसी सत्य के चैतन्य जीवन व्यतीत करता है वह अवश्य शोक - मुक्त हो जाता है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ३ पृष्ठ २९ What exactly is the cause of all grief? It is attachment to the bod...

गीता वाहिनी सूत्र- ७ ||Geetha Vahini- 7 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti || Self Surrender

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शरणागति के तीन प्रकार है तवैवाहम् (मैं तेरा हूं), माम् एव त्वम् (तू मेरा है), त्वमेव अहम्  (तू मैं हूं)। प्रथम निश्चय करता है कि मैं तेरा हूं, दूसरा स्थापित करता है तू मेरा है और तीसरा प्रकट करता है कि तुम और मैं एक ही हैं, अभिन्न हैं। क्रमानुसार प्रत्येक आगे की सीढ़ी है और अंतिम सबसे श्रेष्ठ है। प्रथम अवस्था तवैवाहम् में भगवान पूर्ण स्वतंत्र है और भक्त पूर्ण बंधन में है। जैसे बिल्ली और उसका बच्चा, बिल्ली जहां मन चाहे बच्चे को उठा कर रखती है। बच्चा सिर्फ म्याऊं म्याऊं करता और उसके साथ जो कुछ भी होता है स्वीकार करता है। यह ढंग बहुत ही सौम्य और सभी को प्राप्त हो सकता है, दूसरी अवस्था एवं में भक्त भगवान को जो कि अब तक स्वतंत्र था, बांध लेता है। सूरदास इसका उदाहरण है, जिन्होंने कहा "कृष्ण! तुम मेरी पकड़ से इन बाहों के बंधन से छूट सकते हो, लेकिन तुम मेरे हृदय में से जहां मैंने तुम्हें बांध रखा है नहीं निकल सकते।" भगवान् मुस्कुरा कर मान गए। क्योंकि मैं अपने भक्तों के बंधन में हूं बिना मानहानि का विचार रखें वे मानते हैं कि प्रेम विह्वल और अहंकार रहित भक्त उन्हें अपनी भक्ति से ब...

गीता वाहिनी सूत्र - ६ || Geetha Vahini -6 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti || सच्चे साधक के लक्षण

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सच्चे साधक के लक्षण अपनी विशेषताओं का प्रदर्शन प्रशंसा और गर्व के लिए करने की अपेक्षा साधकों को अपनी त्रुटियाँ खोज कर उन्हें दूर करते रहना अधिक उपयोगी होगा। ऐसा करने से उनकी उन्नति शीघ्र होगी और कोई भय या चिंता उन्हें पीछे ना घसीट सकेगी। भगवान पर जिन्होंने अपना पूर्ण भार सौंपा है जब उस पर पूर्ण विश्वास रख आगे बढ़ेंगे, तभी उन्हें मानसिक शांति प्राप्त होगी एक सच्चे साधक के यही लक्षण हैं। अर्जुन की भी जब ऐसी स्थिति हुई तभी कृष्ण ने उसे (और उसके द्वारा मानव मात्र को) अमरत्व प्रदान करने वाला उपदेश दिया। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ३ पृष्ठ २५ It is more useful for students to search for their own faults with a view to remove them than to seek excellences so that they might exult over them. Students who do the former can progress fast; they are not dragged behind by fear or anxiety; they can move on with faith in the Lord, on whom they have placed all their burdens. They reach a state of mental calm, which is the sign of the true aspirant. Arjuna arrived at that stage, ...

गीता वाहिनी सूत्र - ५ || Geetha Vahini - 5 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti || मन्मना भव मद्भक्तः || Manmana Bhava

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मन्मना भव मद्भक्तः मद्याजी माम् नमस्कुरु। मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।। 'मन्मना' - यानी प्रत्येक प्राणी में परमात्मा को ही देखना, अस्तित्व के प्रत्येक क्षण में परमात्मा की चेतना। इसी चैतन्य के आनंद में लीन रहना। 'मद्भक्त' अर्थात् परमात्मा के प्रति निश्चल भक्ति और प्रेम के परिणामस्वरूप उत्पन्न संबंध में एक रूप हो जाना। 'मद्याजी' का अर्थ है कि छोटे बड़े सब कार्य (इच्छा, संकल्प, वृत्ति, कृति, फल प्राप्ति) आरंभ से अंत तक कृष्ण को अर्पण कर दो और अपने सब मोह को त्याग कर, सब कार्य निष्काम पूजा समझकर विरक्त भाव से करो। भगवान तुमसे यही चाहते हैं। 'मामेवैष्यसि' - तुम मेरे पास आओगे, तुम मेरी प्राप्ति की ओर आओगे, अर्थात तुम मेरे रहस्य को जानोगे तुम मुझ में प्रविष्ट होगे, तुम्हें मेरा स्वभाव प्राप्त होगा। जब व्यक्ति प्रत्येक में परमात्मा को देखने की अवस्था प्राप्त कर लेता है जब ज्ञान का प्रत्येक साधन उसे एक परमात्मा का अनुभव कराता है वही दिखता है, सुनाई देता है, रस, गंध, स्पर्श में भी परमात्मा का अनुभव होता है तब ऐसा व्यक्ति परमात्मा के शर...

गीता वाहिनी सूत्र - ४ || Geetha Vahini - 4 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti

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                   गीता के प्रमुख सिद्धांत भगवान श्रीकृष्ण में पूर्ण समर्पण भाव, बाह्य पदार्थ विषयक वस्तुओं से व्यक्ति को बाँधने वाले विविध बंधनों से मुक्ति, सत्कार्य और सदाचार के नियमों का पालन, यह गीता के प्रमुख सत्य सिद्धांत हैं। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी पृष्ठ १४ अध्याय १ Complete surrender to Lord Krishna, freedom from the threefold shackles which bind one with the external world of objects, the observance of good deeds and virtuous disciplines, these are the principal truths underlined in the Geetha.

गीता वाहिनी सूत्र - 3 || Geetha Vahini - 3 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti || विषाद से सन्यास

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                       विषाद से सन्यास यह गीता जो कि 'विषाद योग' से शुरू होती है 'सन्यास योग' में समाप्त होती है। विषाद नींव है, सन्यास उस पर निर्मित महान भवन है। विषाद बीज है और सन्यास फल है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी पृष्ठ १३ अध्याय १ The Geetha which begins with the Vishada Yoga ends with the Sanyasa Yoga; Vishada is the foundation and Sanyasa, the superstructure. Vishada is the seed and Sanyasa, the fruit.

गीता वाहिनी सूत्र - 2 || Geetha Vahini - 2 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti

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अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पंडिताः ।। Did you grieve when the body underwent many changes hitherto? The child disappeared in the boy, the boy disappeared in the youth, the youth became lost in the middle-aged man, the middle-aged man was lost in the aged old man and the old man is lost in death. You never wept for the changes that affect the body so long; why then weep for this one change? Have you, today, the body you had when you were a boy? So too, whatever changes your body may suffer, the Atma, the splendour of the true wisdom, remains immortal. Being established unshakably in this knowledge is the sign of the wise, the Jnani." Thus said Krishna. Sri Sathya Sai Baba  Geetha Vahini, Chapter- 1 शरीर की प्रत्येक बदलती अवस्था पर क्या तुमने शोक किया ? नन्हा बालक किशोर बना, किशोर युवक, युवक प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त हुआ प्रौढ़ वृद्ध हुआ, वृद्ध होकर मृत्यु में विलीन हो गया। शरीर इतनी बार परिवर्तित हुआ, लेकिन तुमने तब श...

गीता वाहिनी सूत्र - 1|| Geetha Vahini - 1 || Sri Sathya Sai Baba || Geeta Jayanti

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 The entire complex of Sadhana is directed to the clarification of the awareness of Atma, and the fixing of attention on that. The teaching of Krishna is just this; in fact this is the sum and substance of the search for Truth. आत्म - जागृति और उस आत्म- तत्व पर ध्यान दृढ़ करना ही साधना का गुण है। यही कृष्ण की शिक्षा है; यथार्थ में सत्य की खोज का यही सार व तत्व है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी पृष्ठ १२