गीता वाहिनी सूत्र - ४३ || Gita Vahini - 43 || Sri Sathya Sai Baba || कर्म के त्याग से फल का त्याग श्रेष्ठ है


        कर्म के त्याग से फल का त्याग श्रेष्ठ है

सन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयस्करावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।

जीभ पर तेल, आंख के काजल और कमल के पत्ते पर जल की तरह, कार्य का तुम्हारा साथ है, लेकिन तुम्हारी ओर से नहीं है। कर्तापन की भावना को त्यागने से जो तुम करोगे, सुनोगे उसका तुम पर प्रभाव नहीं पड़ेगा और न उसका दोष ही लगेगा। बाह्य संसार से प्राप्त सुख ही शोक के खुले द्वार हैं। बाह्य सुख क्षणिक है, तुम नित्य हो, परमानंद के स्रोत हो, इससे से भी परे और ऊंचे तुम स्वयं आत्मस्वरूप हो। यही तुम्हारा सत्य स्वभाव है। इन कार्यों और उनके परिणामों से, जिन्हें तुम अब सत्य समझते हो तुम्हारा कोई संबंध नहीं है। तुम कर्त्ता नहीं हो, तुम केवल साक्षी हो, द्रष्टा हो। तुम्हारा अहंकार, 'महत्त्व' की भावना और 'तुम ही कर्त्ता हो' यह भ्रम ही तुम्हारी घबराहट का कारण है। ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करो। कर्म करो, किंतु फल का त्याग करो। फल का त्याग कर्म का त्याग करने से अधिक श्रेष्ठ है।

श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय ११ पृष्ठ १००

Like oil on the tongue, collyrium on the eye, the lotus leaf on water, the deed is with you but not by you. Whatever you do or hear or see, remain unaffected, devoid of deeds, innocent of listening or seeing. The joy derived from the external
world opens the gateways of grief; it is fleeting; but you are eternal, the very source of bliss, above and beyond all this, the embodiment of Atma itself. That is your genuine nature. You are unrelated to these activities that are called deeds and these consequences that you now mistake as real. You are not the doer; you are just the witness, the see-er! All your perplexity has arisen from the delusion that you are the doer, from your ego and the sense of ‘mine’. Know the Brahman; take up all tasks but renounce the consequences; giving up the fruit of activity is far
superior to giving up activity itself. The yoga of action is far superior to renunciation of action (karma).

Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 11.
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