गीता वाहिनी सूत्र - ३७ || Geetha Vahini - 37 || Sri Sathya Sai Baba || सच्चे गुरु की पहचान कैसे करें? || How to recognise a true Guru?
सच्चे गुरु की पहचान कैसे करें ?
शिष्य गुरु की योग्यता भी जांच सकता है यथार्थ में उसे ऐसा करना ही चाहिए क्योंकि उसे गुरु की आवश्यकता है। अर्जुन ! गुरु के आवश्यक गुणों का वर्णन मैं करूंगा। उसे केवल पुस्तक ज्ञान मात्र न होकर प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा ज्ञान होना चाहिए। उसे यथार्थ में सत्य यानि ब्रह्म-निष्ठा में प्रतिष्ठित होना चाहिए। केवल शास्त्र ज्ञान मुक्ति नहीं दे सकता। इससे अधिक से अधिक मुक्ति पाने में मदद मिल सकती है। क्यों ! कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें बिना एक बूंद शास्त्र ज्ञान ही मुक्ति प्राप्त हुई है। लेकिन ऐसे लोग संदेह से व्याकुल शिष्यों को नहीं बचा सकते। उनकी कठिनाइयों को समझकर सहानुभूति नहीं दे सकते।
लाखों-करोड़ों नाम मात्र के गुरु पड़े हैं। अब सभी गेरुआ पहनने वाले गुरु कहलाते हैं। जो गांजा पीते हैं, वह भी गुरु है; जो वाद विवाद, तर्क करते हैं; वह भी गुरु है। लेखक गुरु है। देशभर में भ्रमण कर तर्कशास्त्र सीखने वालों को भी इस नाम पर कोई अधिकार नहीं है। गुरु में अनुभव द्वारा शिक्षकों उन्नत कर शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट साधना पथ पर अग्रसर करने की शक्ति होनी चाहिए। केवल तर्क कौशल किस काम का है ? गुरु जो कुछ भी कहता है वह शास्त्र द्वारा मान्य होनी चाहिए। पुस्तकों से प्राप्त लंबे भाषाओं की झड़ी द्वारा जो श्रोता गण को उत्तेजना की एक लहर से दूसरी पर झुला दे, गुरु नहीं कहा जा सकता। वे भाषण वीर है, किंतु साधन में और आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रभुत्व में शून्य होते हैं। वे पाठ शालाओं के प्रधान शिक्षक बन सकते हैं लेकिन भक्ति नहीं दे सकते न मोक्ष मार्ग दिखा सकते हैं। यह गुरु उसी अवस्था तक सीमित है और उनके आश्रित शिष्य भी उनसे उतना ही लाभ प्राप्त करते हैं। पुस्तक के समान ही लाभ प्राप्त करते हैं। पुस्तक के समान ही उनका मूल्य हो सकता है। बहुत से सावधान साधक ऐसे दिखावटी गुरु के प्रति उनके वाग्जाल और मौखिक कलाबाजी से आकर्षित होते हैं। वह भले ही पंडित कहलाएँ, भाषण दें, लेकिन केवल इतने से ही वे ज्ञान का आशीर्वाद देने योग्य नहीं बन जाते। यह तो अवतारों, देव-अंश से संभूतों और उन तत्वनिदों का कार्य जिन्होंने परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया है (यानि मनुष्य रूप में भगवान दैविक गुण और प्रतिभावान व्यक्ति और ज्ञानी जिन्होंने आध्यात्मिक साधना की श्रेष्ठता प्राप्त की है और सर्वोत्तम परमानंद का अनुभव किया है) अपूर्ण अनुभव करना निरर्थक है। पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर की संपूर्ण अनुभूति करनी चाहिए। जिनका आंशिक ज्ञान है, वह तुम्हें उसी अंश तक ही ले जाकर बीच में ही त्रिशंकु की तरह, जो आसमान और पृथ्वी के बीच लटका दिया गया था, छोड़ देंगे।
मार्गदर्शन के आकांक्षी के गुण व आचरण का गुरु द्वारा अध्ययन होना चाहिए। उसे शिष्य के धन, पदवी व स्थिति से अप्रभावित रहना चाहिए और साधक के हृदय व सत्य स्वभाव की ठीक परख करनी चाहिए। अज्ञान की नींद में प्रसुप्त शिष्य के लिए एक घड़ी की घंटी की तरह उसे कार्य करना है। यदि गुरु कंजूस निकला और शिष्य आलसी तो दोनों का बेड़ा गर्क।
इस प्रकार कृष्ण ने अर्जुन को बहुत ही स्पष्ट रूप से गुरु और शिष्य दोनों के गुण, व्यवहार, विद्वत्ता, योग्यता, दुर्बलता, आचरण और स्वभाव पर उपदेश दिया। उपदेश के यह अमूल्य रत्न सिर्फ अर्जुन के लिए ही नहीं, पूरे विश्व के लिए थे। वे सब जो गुरु या शिष्य होना चाहते हैं, उनको इन बहुमूल्य शब्दों पर ध्यान देना आवश्यक है।
श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय १० पृष्ठ ९१-९३
“Disciples can inquire into the qualifications of the guru. In fact, they ought to, for they need a teacher. Arjuna! I shall describe the characteristics that a teacher should possess. The teacher must have not merely book
knowledge but the wisdom derived through direct experience. The teacher must be established in the reality, that is, in the steady contemplation of Brahman (Brahma-nishta). Mere knowledge of the scriptures is incompetent to grant liberation; it can at best help in gaining a living. Why, there are some who by sheer self-experience have won
liberation, without a grain of knowledge of the scriptures. But such people cannot save disciples who are pestered by doubt; they cannot understand their difficulties and sympathize with them.
“There are thousands and thousands of people who are gurus in name only. All those in saffron are now ‘gurus’; even those who smoke marijuana are ‘gurus’; all those who indulge in discourses are ‘gurus’; all who write
books are ‘gurus’!
“No one can claim the name by wandering over the country and learning to argue. Instead, through direct experience, the guru should possess the power to uplift disciples and put them on the track of spiritual disciplines
prescribed by the scriptures. Of what use is argumentative skill? Whatever is said and done by him must have the
sanction of the scriptures. Spouting things imbibed from books in long speeches that move the listeners from one wave of excitement to another does not make a guru. They may be heroes in lecturing; but they are zeros in spiritual discipline and in the mastery of the spiritual field. They can be schoolmasters, but they cannot confer devotion
or point the way to liberation. These ‘gurus’ attain only that stage, and the disciples who resort to such gurus get
just that. They have as much value as the books that contain all the matter that they pour forth.
“Many unwary spiritual aspirants are attracted by the magic of words and the verbal gymnastics of such showy ‘gurus’. The ‘gurus’ may be called pundits and may give lectures; but, just because of this, they do not become entitled to grant the boon of wisdom. That can be done only by Avatars, people who represent divine
attributes and glory, and wise people who have attained the highest good of spiritual discipline and have tasted the supreme bliss, who have realized the Absolute. It is no use claiming a fraction of this or that experience. The
experience must be of the Full and itself full. Those who know only a fraction will take you up to a certain point and leave you there, in the middle region, like Thrisanku, who was hung between heaven and earth.
“The guru must study the virtues and qualities of aspirants who seek guidance; the guru must not be moved or prejudiced by their wealth, status, or position. The guru must be able to judge aspirants’ hearts, their real nature.
The guru must act as the alarm clock for disciples who are caught in the sleep of ignorance. If the guru is a miser and the disciple is a sloth, woe be to both.”
Thus, Krishna taught Arjuna very clearly the qualifications of both the guru and the disciple: their conduct,
scholarship, virtues and weaknesses, activities and characteristics. These valuable gems of advice were addressed not only to Arjuna but to the whole world. All who seek to become either gurus or disciples must pay attention to these precious words.
Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 10.
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