गीता वाहिनी सूत्र - ४० || Gita Vahini - 40 || Sri Sathya Sai Baba || पापियों की रक्षा


           Saving the Sinners
                  पापियों की रक्षा

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥ ४/३६

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ (३७)

यदि तुमने पाप किया ही है तो क्या पापियों की रक्षा नहीं की जा सकती ? पाप को पवित्रता में बदलने के लिए पश्चाताप ही पर्याप्त है। पश्चाताप को कृपापूर्वक स्वीकार कर भगवान अपना आशीर्वाद बरसाते हैं। ज्ञान उदय न होने तक रत्नाकर नामक डाकू पाप कर्म में संलग्न था! लेकिन पश्चाताप करने पर ऋषि वाल्मीकि बन गया, ठीक है न ? उसकी कहानी पश्चाताप के महत्व का प्रमाण है। तुम पूछोगे कि क्या इस प्रकार केवल पाप के फल से मुक्त हो जाना ही पर्याप्त है ? इसी प्रकार के पुण्य के फलों को भी नहीं त्यागना चाहिए ? क्यों नहीं ; मनुष्य को पुण्य को त्यागने की स्वतंत्रता मिली है हालाँकि उसे पाप के फल को त्यागने की उतनी स्वतंत्रता शायद ना हो। जिस प्रकार जंगल की आग मार्ग में पड़ने वाली प्रत्येक वस्तु को राख बना देती है उसी प्रकार ज्ञान का प्रचंड दावानल संपूर्ण पाप और पुण्य को जलाकर नष्ट कर देता है।

श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय ११ पृष्ठ ९८

Even if you have sinned, are not sinners saved? Repentance is enough to transmute sin into sanctity. The Lord graciously accepts contrition and pours His blessings. The thief Rathnakara, who was engaged in acts of sin
until the moment when wisdom dawned, became a saint through repentance. Didn’t he become the sage Valmiki?
His story is proof of the value of contrition. You may ask whether it is enough to be free from the effects of sin.
Shouldn’t the effects of virtuous deeds also be given up? Why, one has the freedom to give up merits of such deeds, although one may not have equal freedom to give up the demerit of evil deeds. The roaring forest fire reduces to ashes everything in its way; so too, the mighty conflagration of wisdom will consume and destroy all sin and all good consequences.

Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 11.
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