गीता वाहिनी सूत्र - ३४ || Geetha Vahini - 34 || Sri Sathya Sai Baba || Asanga (असंग)



यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।। ४/२२

गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।। ४/२३

सुख और शोक, जीत और हार, लाभ या हानि का युगल ज्ञानी को पराजित नहीं कर सकता। वह तो द्वन्द्वातीत है। घृणा को वह बुरा समझता है, अपने पर उसका प्रभाव नहीं पड़ने देता। आत्मा के स्वरूप और स्वभाव दोनों निश्चित करते हैं कि आत्मा अप्रभावित रहने वाला है, असंग है। अनात्मा का प्रभाव उस पर नहीं हो सकता। उसे न जन्म न मरण, भूख या प्यास, शोक या भ्रम नहीं हैं। भूख-प्यास तो प्राणों के गुण हैं, जन्म व मरण शरीर के लक्षण हैं; शोक और भ्रम मन के रोग हैं। इसलिए, अर्जुन इनको कोई स्थान न दो, अपने को आत्मा समझो। सब भ्रमों को हटाकर मोह त्याग दो। संसार के दलदली सरोवर में कमल के पत्ते की तरह बनो। आसपास की कीचड़ को अपने पर न आने दो। यही अ-संग का चिन्ह है कि वह अंदर होते हुए भी उससे अलिप्त है। कमल के पत्ते की तरह। 'सोख्ता' की तरह नहीं जिस पर प्रत्येक संपर्क का धब्बा लग जाता है।

श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय १० पृष्ठ ८८

“Wise people are not mastered by the dualities of joy and grief, victory and defeat, gain and loss. They are beyond duality. They scorn hatred and never allow it to affect them. Both the embodiment (swarupa) and the innate nature (swa-bhava) of the Atma guarantee that It is unaffected. It is unattached. It is uninfluenced by anything that is not Atma. It has neither birth nor death, hunger nor thirst, grief nor delusion.
“Hunger and thirst are qualities of life; birth and death are characteristics of the body; grief and delusion are affections of the mind. So, Arjuna, do not assign any status to these. Know yourself as the Atma, give up all delusion, and become unattached. Be like the lotus leaf in the marshy lake of change; do not get smeared with the
mud around you. That is the sign of detachment: in it but yet outside it. Be like the lotus leaf, not like the porous blotting paper that gets tainted with whatever it comes in contact with.

Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 10.
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