गीता वाहिनी सूत्र - २८ || Geetha Vahini - 28 ||Sri Sathya Sai Baba || अवतार के हेतु
अवतार के हेतु
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
अवतार पंचतत्व के नहीं बने होते हैं वह चिन्मय हैं, मृण्मय नहीं। अहंकार या 'मेरा' 'तेरा' इन्हें विचलित नहीं करता। अज्ञान से उत्पन्न भ्रम इन्हें छू नहीं सकता। अवतार को मनुष्य, मानव समझने की भूल कर सकता है, लेकिन इससे अवतार की दैवी प्रकृति पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह जिस कार्य के लिए अवतरित होता है, वह पूर्ण होता है। यह कार्य क्या है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ। यह साधुओं की रक्षा, दुष्टों को दंड देना और धर्म को आश्रय देना है। साधुओं का अर्थ अक्सर योगी, सन्यासी माना जाता है। मेरा मतलब यहां इनसे नहीं है। साधु का अर्थ यहां साधु - गुण, सज्जनता, सच्चाई, सदाचार से है और यह गुण सब जानवरों और जंतुओं में भी पाए जा सकते हैं। वास्तव में सत्व गुण को बढ़ाना, साधुओं के पोषण का श्रेष्ठ तरीका है, अवतार इस पवित्र गुण का साकार रूप है, इसलिए जहां भी ऐसा गुण दिखता है वह इसका पोषण करता है। सन्यासी इसे पाने की चेष्टा करते हैं, इसलिए उन्हें साधु कहा जाता है। उन पर भगवान की विशिष्ट कृपा दृष्टि भी रहती है।
लेकिन सिर्फ वही साधु नहीं है। वह सब जो सत्य शील, सत्य का पालन करने वाले और जो सर्वेश्वर की सन्निधि के लिए उत्कंठित हैं; सद्धर्म पालन करने वाले और सभी जनों को समान समझने वाले हैं, सभी साधु हैं। जानवरों और पक्षियों में भी विशिष्ट गुण वाले पाए जाते हैं। रामायण में इन्हीं गुणों के कारण जटायु की रक्षा हुई। इन्हीं कारणों से गजेंद्र को आशीर्वाद वानरों को सेवा का मौका और भगवान के कृपा और आशीर्वाद प्राप्त हुए। इसी कारण गिलहरी तक को आशीर्वाद मिला। गले में माला, भगवा वस्त्र और दंड हाथ में धारण करने से कोई साधु नहीं बन जाता। वस्त्रों से या भाषा से साधु या असाधु निश्चित नहीं होता। यह निर्णय तो गुण करते हैं। अच्छे बनने की संभावना सब पशुओं में भी है। इसीलिए सभी की सज्जनता का पोषण ही संसार की भलाई का पोषण है। अब दुर्जनों की सजा के बारे में। प्रत्येक व्यक्ति व पशु गण जो अपनी निर्धारित मर्यादा की सीमा का उल्लंघन करते हैं, जो अ-कर्म, अन्याय और अनाचार में लगे हैं और जो अहंकार चक्कर में घूमते हैं, उन्हें सजा देनी ही होगी। जिन्होंने अपने रजोगुण और तमोगुण को बढ़ावा देकर, अपने सतोगुण को लुप्त कर दिया है और जिन्होंने दया, धर्म और दान के चिह्न मिटा दिए हैं उन्हें दंड देना ही होगा।
तीसरी बात कृष्ण ने अर्जुन को यह बताई कि धर्म का पोषण करना भी उनका ही काम है। इस संदर्भ में साधु का दूसरा भी महत्वपूर्ण अर्थ है। साधु वह है जो अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं होता, चाहे कितना ही प्रलोभन या भय का अवसर हो। दुर्जन ऐसे लोगों के लिए बाधा खड़ी करने करके प्रसन्न होते हैं और शास्त्रों में लिखे निर्देशों के विरुद्ध व्यवहार करते हैं। तब धर्म स्थापना क्या है ? शास्त्रों में निर्देशित धर्म का दृढ़ता से पालन करना। धर्म अनुसार आचरण को महत्व देना और उसकी महत्ता का लोगों में प्रचार करना; वेद शास्त्र, भगवान के अवतार, परम पुरुष और साधना के लिए आदर-भाव दृढ़ करना जो कि इस जीवन के परे मोक्ष व ईश्वर की कृपा-प्राप्ति का मार्ग है। इसी को धर्म-संस्थापना, धर्म-रक्षा या धर्म उद्धार कहा जाता है। "जो कुछ भी मैं करता हूँ, इसी ऊंचे अभिप्राय से करता हूँ, अपनी निजी उन्नति के लिए नहीं, जो इस रहस्य को जानते हैं, वे जीवन मृत्यु के बंधन से छूट जाते हैं"- कृष्ण ने कहा, भगवान को अपने से दूर, अलग, भिन्न अनुभव करना परोक्ष ज्ञान कहलाता है। विश्वव्यापी भगवान, आत्मरूप अपने में है यह अनुभव करना अपरोक्ष ज्ञान है।
श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय ८ पृष्ठ ६९-७०-७१
The Avatar is not constituted of the five
elements; It is spiritual or consciousness (chinmaya), not material (mrinmaya). It can never be disturbed by egotism or the sense of mine and thine; It is untouched by the delusion born of ignorance. Although people mistake an Avatar as just human, that does not affect the nature of the embodiment.
“The Avatar has come for a task, and it is bound to accomplish it. I shall tell you what that task is. It is to protect the virtuous, to punish the wicked, and to support dharma. By the virtuous, I do not mean the monks and
ascetics who are indicated generally by that word. I mean virtuous qualities, like goodness, uprightness, virtue,
and these can be possessed by animals and even insects. Really speaking, the promotion of the quality of purity
(sathwa-guna) is the best means of fostering the virtuous. The Avatar is the embodiment of this sacred quality
(guna), so It fosters this quality wherever it is found; but since renunciants (sanyasins) are striving to earn it, they are called good people and are supposed to be especially blessed by the attention of the Lord.
“But renunciants are not the only saints. All those who follow good conduct, who have virtue, who adhere to truth, who yearn for the presence of the Lord, who observe true dharma, who consider all (sarva-jna) as equal —all of them are virtuous. Such characteristics are even found among the animals and birds. In the Ramayana, Jatayu was saved as a result of these qualities. That is why the elephant was blessed and the monkeys were given
a chance to serve and be blessed with His grace. The same reason prompted the Lord to bless the squirrel. A string of beads, an ochre robe, and a stick in the hand does not make a virtuous person (sadhu). The clothes the body
wears and the language on the tongue do not decide who is virtuous and who is not; it is the characteristic (guna)
that settles it. All animals have the potentiality to be good, so, fostering goodness in all is the best means of ensuring the welfare of the world.
“Next, punishment of the wicked. Those have to be punished who transgress the limits set for their type or genus of animals, who indulge in inaction, injustice, and improper behaviour, and who roam about caught in the
coils of ego (ahamkara). Those have to be punished who have allowed passion (rajoguna) and dullness (thamoguna) to predominate and purity (sathwa-guna) to be extinguished in them and those who have lost all trace of compassion (daya), dharma, and charity (danam).”
Thirdly, Krishna informed Arjuna that the fostering of dharma is also his work. The word virtuous (sadhu) has another meaning, which is important in this context. A virtuous person does not deviate from their duty, whatever the temptation and whatever the danger. The wicked revel in creating trouble for such people and indulging in acts contrary to the injunctions of the scriptures. What, then, is the establishment of dharma? It is acting strictly according to the dharma laid down in the scriptures; spreading among people the glory and splendour of a life lived in dharma; stabilizing reverence toward the Vedas and the scriptures, toward God, Avatars and high souls,
and spiritual exercise that leads to liberation and a blessedness beyond this life. It is called the establishment of dharma, the protection of dharma, or the revival of dharma (dharma-samsthapana, dharma-rakshana, or dharmoddharana).
“Whatever I do, it is all for this high purpose; nothing is for My own advancement. Those who know this secret can escape birth and death,” said Krishna.
“To feel that the Lord is away, afar, separate from you —that is called indirect knowledge (paroksha-jnana).
To feel that the Lord who is immanent in the universe is in you also as the Atma —that is direct knowledge.
Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 8.
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