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Showing posts from January, 2019

गीता वाहिनी सूत्र -४४ || Gita Vahini - 44 || सच्चे संन्यासी

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                     सच्चे संन्यासी कर्म में तीव्रता से व्यस्त होते हुए भी जो कर्म के फल का त्याग करते हैं, वे मुझे बहुत प्रिय हैं। वे ही सच्चे सन्यासी और सच्चे त्यागी हैं। मुझे वे लोग प्रिय नहीं हैं जो शास्त्रोक्त अग्निहोत्री त्यागते हैं तथा खाने, सोने व इन्द्रिय सुखों में लालसा रखने के अतिरिक्त कुछ नहीं करते व कुंभकर्ण की तरह आलस्य में समय नष्ट करते हैं। ऐसे समय नष्ट करने वाले मुझ तक कभी नहीं पहुंच सकते। जिसने अपनी इच्छाओं का पीछा नहीं छोड़ा है, वह कभी योगी नहीं बन सकता, फिर चाहे वह कितनी भी साधना करे। जो अपने को इंद्रियों में फँसने से बचाकर रखता है, जो अपने कर्म-फलों में आसक्ति नहीं रखता वहीं सर्व-संग परित्यागी (सब प्रकार के मोह को त्यागने वाला) बन सकता है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ११ पृष्ठ १०० Those who renounce the fruits while actively engaged in action are very dear to Me; they are the true renouncers (sanyasins). I have no affection for those who give up the ritual fire and desist from all activity e...

गीता वाहिनी सूत्र - ४३ || Gita Vahini - 43 || Sri Sathya Sai Baba || कर्म के त्याग से फल का त्याग श्रेष्ठ है

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        कर्म के त्याग से फल का त्याग श्रेष्ठ है सन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयस्करावुभौ। तयोस्तु कर्मसन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।। जीभ पर तेल, आंख के काजल और कमल के पत्ते पर जल की तरह, कार्य का तुम्हारा साथ है, लेकिन तुम्हारी ओर से नहीं है। कर्तापन की भावना को त्यागने से जो तुम करोगे, सुनोगे उसका तुम पर प्रभाव नहीं पड़ेगा और न उसका दोष ही लगेगा। बाह्य संसार से प्राप्त सुख ही शोक के खुले द्वार हैं। बाह्य सुख क्षणिक है, तुम नित्य हो, परमानंद के स्रोत हो, इससे से भी परे और ऊंचे तुम स्वयं आत्मस्वरूप हो। यही तुम्हारा सत्य स्वभाव है। इन कार्यों और उनके परिणामों से, जिन्हें तुम अब सत्य समझते हो तुम्हारा कोई संबंध नहीं है। तुम कर्त्ता नहीं हो, तुम केवल साक्षी हो, द्रष्टा हो। तुम्हारा अहंकार, 'महत्त्व' की भावना और 'तुम ही कर्त्ता हो' यह भ्रम ही तुम्हारी घबराहट का कारण है। ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करो। कर्म करो, किंतु फल का त्याग करो। फल का त्याग कर्म का त्याग करने से अधिक श्रेष्ठ है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ११ पृष्ठ १०० Like oil on the tongue, collyriu...

गीता वाहिनी सूत्र - ४२ || Gita Vahini - 42 || Sri Sathya Sai Baba || संशयात्मा विनश्यति

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                  संशयात्मा विनश्यति अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। ४/४० तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः। छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।। ४/४२ अपने मन में किसी भी संदेह को न आने दो। निष्ठा या अटल विश्वास का अभाव भी इतना अनिष्ट नहीं करता जितना कि संदेह का विष। संदेह का कार्य और परिणाम क्षय रोग के कीटाणु की तरह होता है। अज्ञान से यह उत्पन्न होता है, व्यक्ति के हृदय में के छिद्र में घुसकर वहाँ यह पनपता है। विनाश का यही जन्मदाता है। इसीलिए इस दैत्य को आत्मज्ञान की तलवार से नष्ट कर दो। उठो अर्जुन ! कर्तव्यबद्ध होकर कार्य करो। मेरे शब्दों पर विश्वास रखो। कार्य के परिणाम पर विचार न कर जो मैं कहता हूं वही करो। निष्काम कर्म के अभ्यासी बनो। इस त्याग से तुम ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाओगे। क्षणभंगुरता और अनित्यता से मुक्त होकर जन्म मरण के बंधन से छूट जाओगे। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ११ पृष्ठ ९९ “Do not admit doubt into you. Want of faith or steadiness ...

गीता वाहिनी सूत्र - ४१ || Gita Vahini - 41 || Sri Sathya Sai Baba || Faith (श्रद्धा)

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             Faith (श्रद्धा) श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। ४/३९ इस पवित्र आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए एक वस्तु आवश्यक है : निष्ठा (श्रद्धा )। शास्त्रों और शिक्षकों से ज्ञान प्राप्ति में अटल विश्वास। निष्ठा से उत्पन्न प्रेरणात्मक उत्साह के बिना कोई छोटे से छोटा कार्य भी मनुष्य संपन्न नहीं कर सकता। इसलिए अब तुम स्वयं देख सकते हो कि ज्ञान-प्राप्ति के लिए यह कितना आवश्यक है। श्रद्धा वह अतुलनीय तिजोरी है जिसमें शम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधान, रूपी मूल्यवान वस्तु संचित हैं। निष्ठा तो केवल पहला कदम है। मेरे उपदेश को ग्रहण करने की तुममें तीव्र उत्कंठा होनी बहुत आवश्यक है। इसके साथ ही तुम्हें सचेत रह कर आलस्य से बचना होगा। तुम ऐसी संगति में पड़ सकते हो जो बेमेल प्रकृति की हो एवं प्रोत्साहन न देने वाली हो। ऐसी संगति के दुष्ट प्रभाव से बचने और अपने मन को शक्तिमान करने के लिए और उससे हमेशा के लिए बचने के लिए, इंद्रियों पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्य...

गीता वाहिनी सूत्र - ४० || Gita Vahini - 40 || Sri Sathya Sai Baba || पापियों की रक्षा

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           Saving the Sinners                   पापियों की रक्षा अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥ ४/३६ यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ (३७) यदि तुमने पाप किया ही है तो क्या पापियों की रक्षा नहीं की जा सकती ? पाप को पवित्रता में बदलने के लिए पश्चाताप ही पर्याप्त है। पश्चाताप को कृपापूर्वक स्वीकार कर भगवान अपना आशीर्वाद बरसाते हैं। ज्ञान उदय न होने तक रत्नाकर नामक डाकू पाप कर्म में संलग्न था! लेकिन पश्चाताप करने पर ऋषि वाल्मीकि बन गया, ठीक है न ? उसकी कहानी पश्चाताप के महत्व का प्रमाण है। तुम पूछोगे कि क्या इस प्रकार केवल पाप के फल से मुक्त हो जाना ही पर्याप्त है ? इसी प्रकार के पुण्य के फलों को भी नहीं त्यागना चाहिए ? क्यों नहीं ; मनुष्य को पुण्य को त्यागने की स्वतंत्रता मिली है हालाँकि उसे पाप के फल को त्यागने की उतनी स्वतंत्रता शायद ना हो। जिस प्रकार जंगल की आग मार्ग में पड़ने वाली प्रत्येक वस...

गीता वाहिनी सूत्र - ३९ || Gita Vahini - 39 || Sri Sathya Sai Baba || देहात्मभाव

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      देहात्मभाव दूर करने से परमात्मा प्राप्ति एक बात निश्चय जानो। चाहे जितनी दूर तक जाओ, अनेकों गुरु बनाओ, उनकी सेवा करो, किंतु जब तक "मैं शरीर हूँ"  इस भ्रम को दूर नहीं हटा दिया जाएगा, परमात्मा प्राप्त नहीं हो सकता। इस भ्रम के रहते, सब ध्यान, सब जप, सभी तीर्थों के जल में स्नान भी तुम्हें सफलता प्रदान नहीं कर सकेंगे। तुम्हारी संपूर्ण प्रयत्न छिद्र वाले बर्तन से कुएं से पानी निकालने की तरह व्यर्थ हो जाएंगे। अपने कर्तव्य करने वाले गृहस्थ जो अपने आश्रम धर्म का पालन करते हैं, सही मार्ग पर चलते हैं और निरंतर परमात्मा के ध्यान में मग्न रहते हैं ऐसे साधुओं से सदैव उत्तम माने जाएंगे। ऐसे गृहस्थाश्रिमयों को अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ११ पृष्ठ ९६ One thing is certain. As long as the delusion that one is the body is not cast aside, God cannot be realized — however far one may wander, whatever the number of gurus one might select and serve. Stick to that delusion and all the meditation, all repetitions of the name,...

गीता वाहिनी सूत्र - ३८ || Geetha Vahini - 38 || True Guru and Disciple

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            सच्चा गुरु एवं शिष्य कौन?       Who is true Guru & Disciple ? तब सच्चा गुरु कौन है ? जो मोह के मार्ग को नष्ट करने की शिक्षा देता है वही सच्चा गुरु है और सच्चा शिष्य कौन ? वह जो बाह्य वस्तुओं की ओर भागते हुए मन को नियंत्रण में रखने और वशीभूत करने का प्रयत्न करता है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ११ पृष्ठ ९५ Who, then, is the genuine guru? It is he who teaches the path of destroying delusion (moha). And who is the genuine disciple? It is he who seeks to control and conquer the outward fleeing mind. Sri Sathya Sai Baba Geetha Vahini, Chapter 11. ***********************************

गीता वाहिनी सूत्र - ३७ || Geetha Vahini - 37 || Sri Sathya Sai Baba || सच्चे गुरु की पहचान कैसे करें? || How to recognise a true Guru?

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             सच्चे गुरु की पहचान कैसे करें ? शिष्य गुरु की योग्यता भी जांच सकता है  यथार्थ में उसे ऐसा करना ही चाहिए क्योंकि उसे गुरु की आवश्यकता है। अर्जुन ! गुरु के आवश्यक गुणों का वर्णन मैं करूंगा। उसे केवल पुस्तक ज्ञान मात्र न होकर प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा ज्ञान होना चाहिए। उसे यथार्थ में सत्य यानि ब्रह्म-निष्ठा में प्रतिष्ठित होना चाहिए। केवल शास्त्र ज्ञान मुक्ति नहीं दे सकता। इससे अधिक से अधिक मुक्ति पाने में मदद मिल सकती है। क्यों ! कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें बिना एक बूंद शास्त्र ज्ञान ही मुक्ति प्राप्त हुई है। लेकिन ऐसे लोग संदेह से व्याकुल शिष्यों को नहीं बचा सकते। उनकी कठिनाइयों को समझकर सहानुभूति नहीं दे सकते। लाखों-करोड़ों नाम मात्र के गुरु पड़े हैं। अब सभी गेरुआ पहनने वाले गुरु कहलाते हैं। जो गांजा पीते हैं, वह भी गुरु है; जो वाद विवाद, तर्क करते हैं; वह भी गुरु है। लेखक गुरु है। देशभर में भ्रमण कर तर्कशास्त्र सीखने वालों को भी इस नाम पर कोई अधिकार नहीं है। गुरु में अनुभव द्वारा शिक्षकों उन्नत कर शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट साधना पथ प...

गीता वाहिनी सूत्र - ३६ || Geetha Vahini - 36 || Sri Sathya Sai Baba || How to acquire Wisdom

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                ज्ञान कैसे प्राप्त करें?          How to acquire Wisdom? तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।। ४/३४ अर्जुन! तुम पूछोगे कि ऐसा ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ? जिनको इसे पाने की उत्कंठा है, उन्हें चाहिए कि वे आत्म-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्तियों के पास जाएं, उनकी कृपा प्राप्त करें, उनकी चित्त-वृत्ति व व्यवहार को समझ कर अपनी सहायता के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करें। कोई संदेह उठने पर शांति व निडरता से उनके पास पहुंचें। पुस्तकों की गठरियाँ पढ़ लेना, घंटों लंबे भाषण देना व भगवा पहनने से कोई सच्चा ज्ञानी नहीं बन जाता। ज्ञान तो विद्वान, अनुभवी व आत्म ज्ञानी वृद्धजनों द्वारा ही प्राप्त होता है। तुम्हें उनकी सेवा द्वारा उनका प्रेम जीतना होगा। केवल पुस्तकों के पढ़ने से शंकायें कैसे दूर हो जायेंगी ? उनसे तो मन और भी व्याकुल हो सकता है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय १० पृष्ठ ९० “Arjuna! You may ask Me how this wisdom can be acquired. Those anxio...

गीता वाहिनी सूत्र - ३५ || Geetha Vahini - 35 || Sri Sathya Sai Baba || Yajna (यज्ञ)

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               यज्ञ (Yajna) द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।। ४/२८ अपनी शुद्ध चित्त-वृत्ति और मानसिक भावनाओं के शुद्ध जल द्वारा आत्मलिंग का अभिषेक करो। जब चित्त एक ओर जा रहा हो और इंद्रियां दूसरी ओर तब मनुष्य इस दुविधा से व्याकुल हो जाता है। इसलिए मोह को दूर रखो। ऐसा होने पर जो कुछ भी तुम करोगे वह यज्ञ बन जाएगा। वह उसके लिए बलिदान माना जायेगा। जो कुछ तुम बोलोगे शुद्ध मंत्र बन जायेंगे, जहां तुम्हारे पग पड़ेंगे, वह स्थान तीर्थ हो जायेगा। अर्जुन ! मैं तुम्हें यज्ञ के बारे में भी कुछ कहूंगा। चित्त वृत्तियों की सब व्याकुलताओं को रोककर, शांत चित्त होकर सुनो। लोग द्रव्य-यज्ञ, तपो-यज्ञ, योग-यज्ञ इत्यादि की बातें करते हैं। पृथ्वी में यदि एक गड्ढा खोदा जाए तो निकाली हुई मिट्टी का पास एक टीला बन जाएगा। जहां गड्ढा होगा वहां टीला भी होगा। कोई भी गड्ढा बिना टीले के नहीं होता। एक जगह जितना धन एकत्रित हो जाता है, तब वहां उतना ही दान होना चाहिए। अपने धन का उचित उपयोग क्या है ? गौ, भूमि और कौशल का दान, द्र...

गीता वाहिनी सूत्र - ३४ || Geetha Vahini - 34 || Sri Sathya Sai Baba || Asanga (असंग)

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यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।। ४/२२ गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः। यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।। ४/२३ सुख और शोक, जीत और हार, लाभ या हानि का युगल ज्ञानी को पराजित नहीं कर सकता। वह तो द्वन्द्वातीत है। घृणा को वह बुरा समझता है, अपने पर उसका प्रभाव नहीं पड़ने देता। आत्मा के स्वरूप और स्वभाव दोनों निश्चित करते हैं कि आत्मा अप्रभावित रहने वाला है, असंग है। अनात्मा का प्रभाव उस पर नहीं हो सकता। उसे न जन्म न मरण, भूख या प्यास, शोक या भ्रम नहीं हैं। भूख-प्यास तो प्राणों के गुण हैं, जन्म व मरण शरीर के लक्षण हैं; शोक और भ्रम मन के रोग हैं। इसलिए, अर्जुन इनको कोई स्थान न दो, अपने को आत्मा समझो। सब भ्रमों को हटाकर मोह त्याग दो। संसार के दलदली सरोवर में कमल के पत्ते की तरह बनो। आसपास की कीचड़ को अपने पर न आने दो। यही अ-संग का चिन्ह है कि वह अंदर होते हुए भी उससे अलिप्त है। कमल के पत्ते की तरह। 'सोख्ता' की तरह नहीं जिस पर प्रत्येक संपर्क का धब्बा लग जाता है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय १० पृष्ठ ८८ “...

गीता वाहिनी सूत्र - ३३ || Geetha Vahini - 33 || Sri Sathya Sai Baba || Pundits

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                पंडित कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।। यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।। धनंजय ! पंडित कहलाने का अधिकारी वही हो सकता है जिसने कर्म और अकर्म के बीच का अंतर स्पष्ट रूप से समझ लिया हो। पुस्तक में दिए गए विषय को दिमाग में भर लेने से ही कोई पंडित नहीं बन जाता। पंडित की बुद्धि सत्य को प्रत्यक्ष कर दिखाने वाली होनी चाहिए, सम्यक दर्शन। ऐसी दृष्टि पाने से कर्म प्रभावहीन हो जाते हैं व हानिकारक नहीं रहते। ज्ञान की अग्नि में कर्म को जलाकर नष्ट कर देने की शक्ति है। जो सुख के लिए पदार्थों पर निर्भर रहते हैं या इंद्रिय सुखों का पीछा करते हैं, प्रवृत्तियों और इच्छाओं से प्रेरित है, वही कर्म बंधन में जकड़े जाते हैं। लेकिन जो सबसे मुक्त हैं उन्हें शब्द, स्पर्श, रस, गंध या अन्य इन्द्रियों के आकर्षण का लालच प्रभावित नहीं कर सकता। सन्यासी के यही लक्षण हैं, वह  अविचलित रहता है। ज्ञानी अपने में ही परमानंदमय है और दूसरों पर इसीलिए निर...

गीता वाहिनी सूत्र -३२ || Geetha Vahini - 32 || Sri Sathya Sai Baba || The Caste system (वर्ण व्यवस्था)

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                    वर्ण-व्यवस्था (The Caste system) चार वर्ण एक ही शरीर के विभिन्न अंगों के समान है।वह उसी एक दिव्य शरीर से उत्पन्न हुए हैं- ब्राम्हण मुख से,क्षत्रिय हाथ से,वैश्य जंघा से और शूद्र चरणों से,(वास्तव में इस कथन का गहरा आंतरिक अर्थ है) ज्ञान के सिद्धांतों की जो गुरु की तरह शिक्षा देती है,उसी वाणी का वक्ता ही ब्राह्मण है। शक्तिशाली भुजावाले,जो पृथ्वी का भार उठाए हैं,वे क्षत्रिय हैं। खंभों की तरह जो समाज रूपी भवन को साधे हुए हैं,वे वैश्य हैं। इसीलिए अलंकारिक शब्दों में उनको दिव्य पुरुष की जंघा से उत्पन्न में बताया गया है। हर प्रकार के कार्यों की हलचल में व्यस्त पैरों की तरह शूद्र समाज के बुनियादी कार्य करते हैं। यदि किसी एक भी वर्ण का कार्य ढीला पड़ जाए तो सामाजिक जीवन की शांति व सुख पर उसका बुरा प्रभाव होगा। सभी वर्ण आवश्यक व कीमती है,जैसे शरीर के सब अंग बराबर महत्व के हैं। यहां ना कोई ऊंच है,ना नीच। घृणा और स्पर्धा सामाजिक जीवन के लिए उतने ही हानिकारक हैं जितना कि गुस्से में सब अवयवों का पेट के विरोध में अपना काम बं...

गीता वाहिनी सूत्र - ३१ || Geetha Vahini - 31 || Sri Sathya Sai Baba || The Caste system (वर्ण-व्यवस्था)

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                वर्ण-व्यवस्था ( The Caste system) व्यग्रता और अशांति का कारण वर्ण-व्यवस्था नहीं है। दोष तो अनियमित तरीकों का है जिनसे अव्यवस्था बढ़ी है। हर प्रकार के लोगों के हाथ का खिलौना बनने ही के कारण इसकी मौलिक स्वस्थता और शांति खो गई है। विदेशों में भी यह व्यवस्था है। नाम दूसरे हो सकते हैं; लेकिन कार्यप्रणाली एक ही है। वहां भी चार विभाग हैं - १~शिक्षक वर्ग, २~रक्षक वर्ग, ३~वाणिज्य वर्ग और ४~श्रमिक वर्ग। लेकिन भारत में जन्म से वर्ण जाना जाता है। संसार के दूसरे भागों में कर्म से, जो जिस कार्य को करता है उससे माना जाता है। इतना ही अंतर है। अब ब्राह्मणों में, जिनको कि प्रथम वर्ग की मान्यता है, बहुत से हैं जो निर्धारित मार्ग को छोड़कर निम्न तरीके अपनाते हैं। इसी प्रकार चौथे वर्ण में या शूद्रों में बहुत से ऐसे पाए जाते हैं जिनके विचार पवित्र आदर्शों से प्रेरित हैं, जिनकी श्रेष्ठ अध्यात्मिक आकांक्षाएँ हैं और जो मन की शुद्धि द्वारा सिद्धि चाहते हैं। ऐसी कुछ संभावना मात्र से ही वर्ण-व्यवस्था को मानव समाज के लिए निरर्थक बताना उचित नहीं है।...

गीता वाहिनी सूत्र - ३० || Geetha Vahini - 30 || Sri Sathya Sai Baba || वर्ण-व्यवस्था

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                 वर्ण-व्यवस्था चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।। लेकिन अर्जुन! धर्म स्थापना, जिसके लिए मैं आया हूं उसको करने का एक ही ढंग है। वह है 'चातुर्वर्ण्यम्' अर्थात गुण और कर्मों के आधार पर लोगों की चौमुखी व्यवस्था। संसार को चलाने के लिए वर्ण-व्यवस्था बहुत ही आवश्यक है। इसका महत्व समझना सरल नहीं है। कुछ लोग इस विश्वास में बहक जाते हैं की वर्ण-व्यवस्था लोगों में भेद-भाव फैलाकर मनुष्य को मनुष्य से दूर कर देती है। इस समस्या पर यदि विवेक-बुद्धि द्वारा विचार किया जाए तब सत्य क्या है स्पष्ट मालूम हो जाएगा। इस निर्णय पर पहुंचना की वर्ण-व्यवस्था कल्याणकारी नहीं, अज्ञान है। ऐसे निर्णय से अव्यवस्था बढ़ती है। मैंने यह व्यवस्था संसार के कल्याण की वृद्धि के लिए स्थापित की है, यानी 'लोकक्षेम' के लिए वर्ण से मनुष्य को सधर्मी समान प्रकृति के कार्यों को करने में सहायता और संतोष मिलता है। इसके बिना मनुष्य एक क्षण भी सुख नहीं पा सकता। कार्यों की सफलता के लिए वर्ण प्राणवायु ही है। जिनमें सत...

गीता वाहिनी सूत्र - २९ || Geetha Vahini - 29 || Sri Sathya Sai Baba || जन्म कर्म च मे दिव्यम्

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जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः। बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।। सब कार्य यदि समर्पण भाव से किए जाएं तो मनुष्य का चित्त शुद्ध हो सकता है। शुद्ध चेतना वाले ही भगवान के जन्म और कर्म की दिव्यता को पहचान सकते हैं। कृष्ण ने कहा, "सभी इस प्रकार उनकी दिव्यता नहीं समझ सकते। फिर भी मनुष्य रूप में अवतरित भगवान का संपर्क नहीं छोड़ना चाहिए। इस अवसर का लाभ उठाने के लिए जितना भी हो सकता है करो। इसमें तुम्हारी ओर से कोई भी कमी नहीं रहनी चाहिए।" इस अध्याय के दसवें श्लोक में इस पर महत्व देकर और योग्य शिष्य के लक्षण भी बताए गए हैं। "अर्जुन ! सभी मेरे जन्म की और कर्म की दिव्यता को नहीं समझ सकते। जो मोह, घृणा, भय और क्रोध रहित है; और जो परमात्मा के नाम और रूप में लीन हैं, जिनका मेरे सिवा और कोई सहारा नहीं, जो आत्मज्ञान द्वारा शुद्ध हो चुके हैं, एकमात्र वही मुझे समझ सकेंगे। जो मुझे दृढ़ता से खोजते हैं, जिनमें सत्य, धर्म और प्रेम है; वही मुझ तक पहुंच सकते हैं। यह नितांत सत्य है, इस पर ...

गीता वाहिनी सूत्र - २८ || Geetha Vahini - 28 ||Sri Sathya Sai Baba || अवतार के हेतु

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             अवतार के हेतु परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। अवतार पंचतत्व के नहीं बने होते हैं वह चिन्मय हैं, मृण्मय नहीं। अहंकार या 'मेरा' 'तेरा' इन्हें विचलित नहीं करता। अज्ञान से उत्पन्न भ्रम इन्हें छू नहीं सकता। अवतार को मनुष्य, मानव समझने की भूल कर सकता है, लेकिन इससे अवतार की दैवी प्रकृति पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह जिस कार्य के लिए अवतरित होता है, वह पूर्ण होता है। यह कार्य क्या है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ। यह साधुओं की रक्षा, दुष्टों को दंड देना और धर्म को आश्रय देना है। साधुओं का अर्थ अक्सर योगी, सन्यासी माना जाता है। मेरा मतलब यहां इनसे नहीं है। साधु का अर्थ यहां साधु - गुण, सज्जनता, सच्चाई, सदाचार से है और यह गुण सब जानवरों और जंतुओं में भी पाए जा सकते हैं। वास्तव में सत्व गुण को बढ़ाना, साधुओं के पोषण का श्रेष्ठ तरीका है, अवतार इस पवित्र गुण का साकार रूप है, इसलिए जहां भी ऐसा गुण दिखता है वह इसका पोषण करता है। सन्यासी इसे पाने की चेष्टा करते हैं, इसलिए उन्हें साधु कहा जाता है। उन...

गीता वाहिनी सूत्र - २७ ||Geetha Vahini - 27 || Sri Sathya Sai Baba || धर्म स्थापना

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                             धर्म स्थापना यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। व्यक्ति और समूह दोनों धर्म के अधीन है। उदाहरण के लिए प्रपंच अंग पंचतत्वों को लो।जल का धर्म गति और शीतलता है। अग्नि का धर्म ज्वलन ओर प्रकाश है।इन पंचतत्वों में प्रत्येक का धर्म भिन्न है। मनुष्य, मनुष्यता द्वारा और पशु, पशुता द्वारा नष्ट होने से बचते हैं, यदि अग्नि में ज्वलन और प्रकाश की शक्ति ना रहे तो अग्नि, अग्नि कैसे कहलाएगी, इसे अपना अस्तित्व व्यक्त करने के लिए अपना विशिष्ट धर्म प्रकट करना ही पड़ता है, अपने धर्म को प्रकट करने की शक्ति के क्षीण होने से यह केवल एक निर्जीव कोयले का टुकड़ा ही रह जाता है। इसी प्रकार मनुष्य के भी कुछ नैसर्गिक गुण है जिनके बिना उसका अस्तित्व ही संभव नहीं है। इन्हें शक्तियाँ भी कहा जाता है। जब तक ये शक्तियां मनुष्यों में हैं तब तक ही उन्हें मनुष्य कहा जा सकता है।इन शक्तियों के नष्ट हो जाने पर वे मनुष्य नहीं रह जाएंगे। ऐसे गुण और शक्तियों की रक्षा और पोषण ...

गीता वाहिनी सूत्र - २६ || Geetha Vahini - 26 || Sri Sathya Sai Baba || Dharma

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धर्म शब्द का मूल अक्षर ध्र है, जिसका अर्थ है 'धारण', अर्थात धर्म वह है जो धारण किया जाता है। देश भगवान की देह है जो धर्म रूपी वस्त्र धारण करने से रक्षित है।धर्म ही देश को सौंदर्य और आनंद  देता है,यही पीतांबर है,भारत का पवित्र परिधान है,आत्म- सम्मान और गौरव की इसी से रक्षा होती है,शीत से बचाव यही करता है और जीवन को सौंदर्य भी यही प्रदान करता है। इसी के कारण देश आत्म-सम्मान रक्षित है। वस्त्र से जिस प्रकार व्यक्ति की प्रतिष्ठा जानी जाती है,उसी प्रकार धर्म जनता के गौरव का माप है। श्री सत्य साई बाबा गीता वाहिनी अध्याय ७ पृष्ठ ६० The word dharma is derived from the root dhri, meaning “wear”; dharma is that which is worn. The nation (desa), the body of the Lord, is protected by the dharma it wears; the dharma also gives the body beauty and joy; it is the yellow garment, the holy apparel of India. It guards both honour and dignity; it protects from chill and lends charm to life. Dharma preserves the self-respect of this land. Just as clothes maintain the dignity of the perso...