गीता वाहिनी सूत्र - ४९ || Gita Vahini - 49 || Sri Sathya Sai Baba || परा एवम् अपरा प्रकृति




अपरा प्रकृति जिसके बारे में मैं कह रहा हूँ, वह मेरी ही शक्ति का और मेरी ही महत्ता का प्रत्यक्ष स्वरूप है, इसे याद रखो। बाहरी तौर पर व स्थूल दृष्टि से देखने पर "एक नहीं अनेक" दीखेगा, लेकिन यह भ्रम है। यहाँ अनेक बिल्कुल नहीं है। अंतःकरण की उत्कंठा  तो एक की ही ओर है। यही सत्य दृष्टि है। और जब अंतःदृष्टि ज्ञान से संपृक्त हो जाती है तब जगत या सृष्टि ब्रह्म ही दीखेगा, और सिवाय इसके अन्य कुछ भी अनुभव नहीं होगा। इसलिए अंतः दृष्टि की रुचि को केवल ज्ञान की ओर रखने की शिक्षा देनी चाहिए। जगत जगदीशमय है। सृष्टि रूप में स्वयं विधाता ही है। कहा गया है कि "इशावास्यमिदम् सर्वम्" यह सब परमात्मा ही है।

यथार्थ में यह सब एक होकर भी अनेक जैसा दीखता है। कृष्ण के इस कथन पर एक उदाहरण याद आता है। संध्या के गहरे धुंधले-पन में जबकि चीजें धुंधली सी दीखने लगती हैं - एक गोल-मोल  रस्सी मार्ग में पड़ी है। प्रत्येक जो इसे देखता है उसकी अलग-अलग कल्पना करता है, जबकि यथार्थ वह मात्र एक रस्सी का टुकड़ा है। एक इसको माला समझ ऊपर से निकल जाता है। दूसरा इसे बहती पानी की रेखा समझ पैर रखता है, तीसरा इसे वृक्ष से उखाड़ी गई, रास्ते पर पड़ी हुई लता समझता है। कोई इसे सर्प समझ सकता है। ठीक है न ?"

इसी प्रकार एक परब्रह्म बिना किसी रुपांतरण या परिवर्तन के प्रभाव में आए अनेकों नाम व स्वरूप के प्रपंच में प्रकट होता है। माया की धुंधली संध्या में होने वाली प्रतीति का कारण यही है। रस्सी देखने पर अनेकों व्यक्तियों में विभिन्न प्रकार की भावनाओं तथा प्रतिक्रिया उत्पन्न करेगी। वह इस विभिन्नता का आधार हो गई है, किंतु स्वयं अलग-अलग रूपों में परिवर्तित नहीं होती। वह सर्वदा एक है। रस्सी सदा रस्सी ही रहेगी। वह माला, पानी की रेखा, लता या सर्प तो नहीं बन जाती। ब्रह्म के अनेकों भ्रामक अर्थ लगाये जायें फिर भी ऐसा एकमात्र ब्रह्म ही रहेगा। इन सब विभिन्न रूपों का ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविक आधार है। माला के धागे की तरह वह इमारत की नींव की तरह, ब्रह्म ऐसा धागा है जो जीव धारियों को साधे हुए है एवं प्रकृति रुपी निर्माण का आधार है। ध्यान रहे धागा व नींव अदृश्य रहते हैं, केवल फूल और इमारत ही दीखते हैं। इसलिए इसका अर्थ यह नहीं कि उन दोनों का अस्तित्व ही नहीं है। यथार्थ में वह फूलों और इमारत का आधार है। खैर थोड़ी विचार शक्ति और विवेक द्वारा तुम भी इनके अस्तित्व और महत्ता को समझ लोगे। यदि इतना भी कष्ट नहीं उठाओगे तो यह बात तुम्हारे ध्यान से निकल जाएगी। विचार शक्ति और अन्वेषण द्वारा तुम इस धागे तक पहुंच जाओगे जो माला को संभाले है और नींव बनकर पृथ्वी में छिपा है। आधेय को देखकर आधार के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं करना चाहिए। अस्वीकार करने से तुम सत्य को खोकर भ्रम को ही कसकर पकड़ लेते हो। विचार शक्ति से अच्छे-बुरे की पहचान करके विश्वास और अनुभव प्राप्त करो।

श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय १२ पृष्ठ १०६-१०७

Krishna continued, “The lower world about which I speak is just a manifestation of My power, My glory,
remember. Seen superficially, with the gross vision, the universe might appear as many, but that is wrong.
There is no many at all. The yearning of the inner consciousness (anthah-karana) is toward the One; that is the real vision. When inner vision is saturated with wisdom, creation will be seen as Brahman and as nothing else.
Therefore, the inner consciousness must be educated to interest itself only in wisdom.”
Creation (jagath) is saturated with the Lord of creation. Creation is nothing but the Creator in that form. All this is God (Isavaasyam idam sarvam), it is said.
Although there is only One, it appears as many. Let us remind ourselves of an example with reference to this
statement of Krishna. We walk in the thick dusk of evening when things are seen but dimly; a rope lies higgledypiggledy on the path; each one who sees it has their own idea of what it is, although it is really just a length of
rope. One steps across it, taking it to be a garland. Another takes it to be a mark made by running water and treads
on it. A third person imagines it to be a vine, a creeper plucked from off a tree and fallen on the path. Some others
are scared that it is a snake, right?
Similarly, the One Highest Brahman, without any change or transformation affecting It, being all the time It and It only, manifests as the world of manifold names and forms. The cause of all this seeming is the dusk of delusion (maya). The rope might appear as many things —it might provoke various feelings and reactions on various people; it has become the basis for variety. But it never changes into the Many; it is ever One. The rope is ever the rope! It does not become a garland or a streak of water or a creeper or a snake. Brahman might be misinterpreted in a variety of ways, but it is ever Brahman only. For all the various interpretations, Brahman is the One Real Basis. Like the string for the garland, Brahman is the string that penetrates and holds together the garland of the souls. Like the foundation for the building, Brahman is the foundation for the structure of creation.
Note this. The string and the structure are not visible; only the flowers and the building are evident. That does not mean that the string and structure are non-existent! In fact, they support the flowers and the building.
Well, you can know of their existence and their value by a little effort at reasoning. If you do not take that trouble, they escape your notice. Reason, examine, and you can arrive at the string that holds the flowers together and the
foundation hidden in the earth. Do not be misled by the thing being contained (adheya) into denying the holder, the container, the basis, the support (adhara). If you deny it, you miss the truth and hold on to a delusion. Reason and discriminate; then believe and experience.

Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 12.
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