गीता वाहिनी सूत्र - ४७ || Gita Vahini - 47 || Sri Sathya Sai Baba || How to control the Mind ? (मन को वश में कैसे करें ?)


                    मन को वश में कैसे करें ?
           (How to control the Mind ?)

                 अर्जुन उवाच
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। ६/३४
                श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। ६/३५

कृष्ण ! यह सब जो आप बता रहे हैं सुनने में बहुत मधुर है और मैं सोचता हूं कि इस में सफल होने वाले के लिए वह आनंद का स्रोत भी अवश्य होगा। लेकिन यह तो सभी की पहुँच से दूर और कितना कठिन है। ऐसा योग जिसमें सभी के प्रति समान भाव (समत्वम्) हो, पूर्ण साधक के लिए भी कष्ट साध्य है फिर मुझ जैसे व्यक्तियों के लिए क्या कहूँ जो साधारण मुमुक्षु हैं ? क्या यह हमारे लिए साध्य हो सकता है। कृष्ण ! क्या मन कितनी सरलता से वश में किया जा सकता है ? अरे मन व्यक्तियों जिस प्रकार खींच लेता है, एक हाथी भी नहीं खींच सकता ; मन तो स्वच्छन्दता का घर है ; इसकी हठधर्मी और नादानी बहुत बलवान है ; यह उस छछूंदर के समान है जिसे कभी पकड़ा नहीं जा सकता, न यह एक जगह स्थिर रहता है। मन को पकड़कर वश में करना, हवा को बंदी भगाना या पानी गठरी में बांधने जैसा है। ऐसे मन को लेकर कोई कैसे योग में प्रवेश ले सकता है ? मन को वश मे करना और योग साधना करना, दोनों कार्य एक समान कठिन हैं। कृष्ण तुम ऐसे कठिन कार्य को करने की सलाह दे रहे हो, जो कि किसी के बस की बात नहीं है।
इन शब्दों को सुनकर भगवान मुस्कुराए और बोले, "अर्जुन ! तुमने मन का वर्णन भी ठीक किया है और उसके लक्षणों को भी तुमने अच्छी प्रकार समझ लिया है ; लेकिन यह कोई असंभव कार्य नहीं है। कठिन होते हुए भी मन को नियमित अभ्यास, सतत विचार और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है। ऐसा कोई कार्य नहीं जो नित्य अभ्यास द्वारा संपन्न न किया जा सके। भगवान में विश्वास रख इस निश्चय से अभ्यास करो कि तुम्हारे साथ भगवान की शक्ति और अनुग्रह है- फिर सब कार्य सरल हो जाते हैं।

श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय ११ पृष्ठ १०२-१०३

“Krishna! All that you have been telling me is very pleasant to the ear, and I can well imagine that it must be a source of bliss to those who attain success. But it is so difficult, beyond the reach of all. The yoga
wherein everything has to be realized as equal (sama-thwam) is fraught with obstacles even for the fully equipped
aspirant. What, then, am I to say of people like me who are common aspirants? Is it ever possible for us? Krishna!
Is the mind so easily controllable? Alas! Even an elephant cannot drag as the mind does. The mind is the nursery of waywardness; its mulishness and obstinacy are also very powerful; it is a terrible shrew. It can never be caught;
it will never halt at one place. The attempt to catch the mind and tame it is like capturing the wind or bundling up
water. How can anyone enter upon yoga with such a mind? One seems as hard as the other, these twin tasks of
controlling the mind and practising the yoga. Krishna, you are advising an impossible task, beyond the capacity
of any one.”
The Lord broke into a smile on hearing these words. “Arjuna! You have described the mind and known its nature very well. But it is not an impossible task. The mind can be mastered, however difficult the task might be. By systematic practice, relentless inquiry, and detachment (vairagya), the mind can be mastered. There is no task that cannot be accomplished by steady practice. Place faith in the Lord and practise with the certainty that you
have the power and the grace, and all tasks become easy.

Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 11.
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