गीता वाहिनी सूत्र - ५१ || Gita Vahini - 51 || Sri Sathya Sai Baba || प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।
असंख्य नाम है और इतने ही रूप है, लेकिन एक बात का तुम्हें ध्यान रखना है जो सबके लिए पंडित से लेकर मूर्ख तक के लिए प्रतिदिन अनुभव में आने वाली है। हिंदी और तेलुगू के साहित्य में 52 अक्षर हैं, और अंग्रेजी में 26 हैं। यदि तुम हिंदी या तेलुगु या अंग्रेजी के साहित्य का पूरा पहाड़ चुन दो, फिर भी यह सब साहित्यिक रचनाएं हिंदी और तेलुगू के 52 या अंग्रेजी के 26 अक्षरों के आधार पर बनी होंगी। इससे एक भी अक्षर अधिक नहीं मिलेगा।
इसी तरह मनुष्य के शरीर में ६ नाड़ी केंद्र होते हैं, जिन की आकृति कमल के फूल की तरह होती है। इनकी प्रत्येक पंखुड़ी से एक शब्द या ध्वनि संबंधित है। हारमोनियम की रीड की तरह जब पंखुड़ियां हिलती हैं तब प्रत्येक से एक अलग ध्वनि निकलती है। इस कथन को जो बुद्धि पूर्वक समझने का प्रयत्न करेंगे उन्हें एक संदेह होगा - 'यदि पंखुड़ियां हिलती रहती हैं, तो उन्हें कौन हिलाता है?' हाँ ! जो शक्ति इन्हें हिलाती है वह अनहद ध्वनि है; पता भी न चले इतनी सूक्ष्म ध्वनि है, जो बिना प्रयत्न के सचेत इच्छा की अपेक्षा किए बिना ही उत्पन्न होती है। यही प्रणव है। माला कि मनकों की तरह सब शब्द व उन से निकली ध्वनियां प्रणव में गुँथी हुई है। भगवान के कथन - "वह वेदों में प्रणव है" का अर्थ यही है। कृष्ण की शिक्षा है कि तुम्हें अपना मन प्रणव में जो कि विश्व का आधार है लीन कर देना चाहिए।
मन की एक विशिष्ट प्रवृत्ति है कि वह जिसके भी संपर्क में आता है उसी में तदाकार हो जाता है और उसी के लिए तरसता है, उद्विग्न और व्याकुल रहता है। लेकिन नित्य अभ्यास, संयम और साधना द्वारा इसे प्रणव की ओर ले जा कर और प्रणव में विलीन होने की शिक्षा उसे दी जा सकती है। ध्वनि की ओर तो वह स्वतः ही आकर्षित होगा इसलिए इसकी सर्प से तुलना की जाती है। सर्प में दो अवगुण हैं। एक तो टेढ़ी चाल और दूसरी बुरी आदत यह है कि संपर्क में आने वालों को डंक मारना। यही दोनों स्वभाव मनुष्य में भी हैं। जिस वस्तु पर मन फिसलेगा वह उसी को अधिकृत कर लेना चाहता है। और इसकी भी चाल टेढ़ी है। किंतु सर्प का एक प्रशंसनीय गुण भी है। कितना भी विषैला और घातक होने पर भी बाजीगर की बीन संगीत सुनते ही वह फन फैलाकर, संगीत की मधुरता में लीन हो अन्य सभी कुछ भूल जाता है।
इसी तरह मनुष्य भी अभ्यास द्वारा प्रणव के आनंद में लीन हो सकता है। परमात्मा जो "वेदों का प्रणव है ,यानी वेदों में जो प्रणव है" उस परमात्मा की प्राप्ति का शब्द उपासना ही मुख्य साधन है। परमात्मा केवल शब्द ही है। इसलिए भगवान ने कहा है कि "वह मनुष्य में पौरूष" है। पौरुष यानि जीव शक्ति यानि मनुष्य की प्राण शक्ति है। इसके बिना मनुष्य पुरुषार्थ हीन है। पूर्व जन्मों की शक्ति की खिंचावट कितनी भी प्रबल क्यों ना हो उसे पौरूष से उत्पन्न साहस और सफलता की ताकत के सामने झुकना ही पड़ता है। इस शक्ति को न समझने वाले मूर्ख मनुष्य भ्रम में पड़कर अपने भाग्य को कोसते हैं, अपने प्रारब्ध को कोसते हैं, उससे डरते हैं और समझते हैं कि उनके प्रभाव से वह बच नहीं सकते।
श्री सत्य साई बाबा
गीता वाहिनी अध्याय १२ पृष्ठ १०९-११०
Names are countless, and so are forms. But there is one matter that you have to take into consideration here,
a matter that is within the daily experience of all, from the pundit to the ignoramus: letters. In Telugu, there are 52 letters; in English, just 26. If you pile up the entire literary output in Telugu or English and the pile rises mountain high, it is all composed of the 52 Telugu letters or the 26 English ones, not a single letter more.
Similarly, in the human body there are six nerve centres, all in the form of the lotus flower. All six lotus forms have one letter or sound attached to each petal. Like the reeds in the harmonium, when the petals are moved, each one emanates a distinct sound. Those who follow this statement intelligently may get a doubt; if the petals are said to move, who or what is moving them? Yes, the force that moves them is the primeval unstruck sound (an-aahatha-dhwani), which emanates without effort, regardless of conscious will. That is Om. Like beads in the string, all letters and the sounds that are present are strung on Om. That is the meaning of the statement that He is the “Om of the Vedas”. Krishna’s teaching is that you should merge your mind in Om, which is the universal basis.
The mind has an innate tendency to merge in whatever it contacts; it craves this. So, it is ever agitated and
restless. But, by constant practice and training, it can be directed toward Om and taught to merge with it. It is also naturally drawn toward sound. That is why it is compared to a serpent. The serpent has two crude qualities; its
crooked gait and its tendency to bite all that comes in its way. These two are also the characteristics of people.
People also seek to hold and possess all that they set their eyes on. They also move crookedly.
But the serpent has one praiseworthy trait. However poisonous and deadly its nature, when the strains of the charmer’s music are played, it spreads its hood and merges itself in the sweetness of that sound, forgetting
everything else. Similarly, through practice, people can merge themselves in the bliss of Om. This close attention to sound (sabda) is a principal way to realize the highest Atma, who is “the Om of the Vedas”. He is not other than sound. That is why the Lord said that He is the “vitality (pourusha) of humanity”, the breath of humanity.
Without it, a person has no manliness. However strong may be the force of the drag of previous births, it has to
yield to the strength of adventure and achievement emanating from vitality. Unaware of this potentiality, foolish people are misled into cursing their fate, cursing the “inescapable” effects of what they dread as consequences of
actions in previous births!
Sri Sathya Sai Baba
Geetha Vahini, Chapter 12.
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Great sir ji
ReplyDeleteThanks .Jai Sai Ram .
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