शिरडी साई बाबा का जन्म एवं जीवन | Birth & Life of Shirdi Sai Baba
ॐ श्री साई राम। शिरडी साई बाबा के जन्म और उनके प्रारंभिक जीवन के बारे में अधिकांश भक्तों को ज्ञात नहीं है।श्री सत्य साई बाबा ने अपने प्रवचनों में शिरडी साई बाबा के जीवन के विषय में बताया है।इसे कुछ भागों के द्वारा जन-2 तक पहुँचाने का प्रयास किया गया है।कृपया इसे पढ़ें और अधिक से अधिक शेयर करें।
भगवान श्री सत्य साई बाबा के अनुसार शिरडी साई बाबा का जन्म 28 सितम्बर 1835 को पथरी गाँव में गंगाभव और देवगिरि अम्मा के यहाँ हुआ ।
शिरडी साई बाबा का आगमन
भाग-1श्रीमती देवगिरि अम्मा को एक दुर्लभ वरदान देते हुए महादेव ने कहा " अम्मा । मैँ यहाँ पर तुम्हारी परीक्षा लेने आया था और देवी पार्वती ने तुम्हारी प्रार्थना को सुन लिया है । हम दोनों तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हैं। मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं तुम्हारे दूसरे पुत्र के रूप में जन्म लूँगा।" जैसे ही भगवान शिव ने इतना कहा था कि वे दोनों अंतर्ध्यान हो गए।
शिरडी साई की लीलाओं को अब तक सारा संसार जान चुका है । उनके जन्म को लेकर अनेकों प्रश्न उठे है । कौन उनके माता-पिता थे या शिरडी में वे कहाँ से आये थे आदि आदि ।
हम यह भी जानते है कि जब शिरडी बाबा ने अपनी देह का त्याग किया था , उस समय पास खड़े हुए अपने प्रिय भक्तों को उन्होंने वचन दिया था कि वे आठ वर्षों के पश्चात् आन्ध्र प्रदेश राज्य में पुन: जन्म लेंगे और अपने वचन के अनुसार वे सत्य साई के नाम से पुट्टपर्ती में प्रकट हुए।
भगवान सत्य साई ने अपने इस अवतार में अनेकों बार पिछले जन्म काल की बातें की है और उसके प्रमाण भी दिए हैं। लोगों ने उनको दोनों रूपों में अनुभव भी किया है।
*शिव-पार्वती का दुर्लभ वरदान*
माना जाता है कि शिरडी में बाबा सोलह वर्ष की आयु में सन् 1854 में अचानक देखे गए । इसका अर्थ है कि सन् 1838 के आसपास उनका जन्म हुआ था। उनके माता-पिता श्रीमती देवगिरि अम्मा तथा श्री गंगाभवदीय दोनों बहुत सद्गुणी और दयालु थे । भारद्वाज गोत्र के नियोगी ब्राह्मण थे । वे अहमदनगर जिले के पथरी गाँव में रहते थे । वह महाराष्ट्र राज्य का एक बहुत ही छोटा सा गाँव था । माँ देवगिरि माता पार्वती की अनन्य भक्त थीं , पिता गंगाभवदीय शिव भक्त थे । उनके पास धन तो था परन्तु सन्तान का सुख नहीं था । वे दोनों दिन-रात अपने अपने इष्ट देव की पूजा प्रार्थना करते रहते थे कि प्रभु उन्हें बालक देने की कृपा करें ।
एक बार आषाढ़ के महीने में शुक्लपक्ष की चौदहवीं तिथि ( पूर्णिमा में एक रात पहले ) की शाम को गोदावरी नदी ( महाराष्ट्र ) में बहुत बाढ़ की भी स्थिति हो गई थी , तब गाँव वालों को गंगाभवदीय की सहायता की आवश्यकता थी, वो बुलाने आये थे, तब नदी किनारे के जरूरतमंद लोगों को नदी के पार सुरक्षित स्थान पर पहुँचाना था । इसलिए अपनी पत्नी को कहकर कि लौटकर आने में देर हो सकती है है वे गाँव वालों की सेवा करने चले गए ।
पीछे घर के अन्दर देवगिरि अम्मा उस वर्षा ऋतु को रात्रि में अपने पति के लौटकर आने की प्रतीक्षा में बैठी थीं , तभी द्वार पर दस्तक हुई और उन्होंने जाकर शीघ्रता से द्वार खोला। सामने एक बूढ़ा सा अपरिचित व्यक्ति खड़ा हुआ था, वे उसे देखकर चौंक गई। बूढ़े व्यक्ति ने कहा, अम्मा मैं बहुत भूखा हूँ, क्या मुझे कुछ खाने के लिए दे सकती हो?
शिरडी साई बाबा का आगमन*
*भाग-2*
पति-पत्नी का सेवा-भाव ,करुणा और दीन-दुखियों की सहायता करना यही जीवन था तथा द्वार पर आये आगंतुक को भोजन देना उनका स्वभाव था, इसलिए शीघ्र ही निर्णय ले लिया अपने पति के हिस्से का भोजन सुरक्षित रखते हुए, अपने हिस्से का खाना उस वृद्ध को दिया और कहा कि वो वहाँ बाहर बरामदे में विश्राम कर ले । फिर उसने अपने घर का द्वार अन्दर से बंद कर लिया । लेकिन कुछ ही देर में फिर से उसने किवाड़ खटखटाया। उसने कहा, "अम्मा! मैं बहुत थक गया हूँ और मेरी टाँगें बहुत दुख रही है तो मैं सो नहीं पा रहा हूँ, क्या कोई स्त्री है जो मेरे पैर दबा देगी? देवगिरि अम्मा यह सुनकर अचंभित रह गई । यह कैसी विचित्र माँग है? उसने बहुत ध्यान पूर्वक विचार किया, कि क्या माता पार्वती उसकी परीक्षा ले रही है? वह अपने पूजा घर में गई और प्रभु से प्रार्थना करने लगी हे जगत जननी माँ, यह मैरी कैसी कठिन परीक्षा ले रही हो , इस संकट में मेरी सहायता करो । घर में वह अकेली थी सो घर के पिछले किवाड़ खेलकर वह गाँव के कुछ घरों में गई जहाँ दासी/सेविका रहती थी उसने उस वृद्ध आगंतुक की इच्छा बताकर सेवा के बदले में धन देने का भी वचन दिया, परन्तु दैवयोग से उस समय कोई भी नहीं आ पाया।
देवगिरि अम्मा दुखी होकर घर लौट आई । वह अन्दर सीधे माँ पार्वती की छवि के सामने गई और निर्मल हदय से एकचित्त होकर जगत जननी की आराधना करने लगी कि अतिथि की सेवा का कोई उपाय करें । वह एक पतिव्रता स्त्री थी और साथ ही घर पर आए हुए अतिथि की सेवा सत्कार करना, उनके सुख - सुविधा का प्रबन्थ करना पति-पत्नी दोनों अपना कर्तव्य समझते थे, अत: इस विकट परिस्थिति में केवल ईश्वर ही भक्त की सहायता कर सकते है।माँ ने अपना भक्तिन की गोहार( पुकारा ) सुन ली, घर के पिछले द्वार पर किसी ने खटखटाया। उसने जाकर देखा कि एक स्त्री आई थी और उसने कहा कि , अम्मा जब आप मुझे बुलाने के लिए आई थी हैं तब मैं घर के कामों में व्यस्त थी, परन्तु अब मेरे पास समय है, तो बताओ कि क्या काम करना है?
देवगिरि अम्मा अति प्रमन्न हुई कि माँ पार्वती ने उनकी प्रार्थना को सुन लिया था और सहायता भेज दी थी। वे उस सेविका को लेकर घर के आगे के दालान में गई और उस वृद्ध अतिथि के दु:खते पैरों को दबाने को विनती की और अन्दर चली गई ।
शिरडी साई बाबा का आगमन
भाग-3
उस वृद्ध पुरुष तथा सेविका ने एक दूसरे के सामने देखा और रहस्यमय मुस्कान दोनों के चेहरे पर फैल गई । वह वृद्ध थका हुआ अतिथि और कोई नहीं स्वयं महादेव शिव तथा सेविका के रूप में वह स्त्री शिव की अर्द्धांगिनी जगत जननी माता पार्वती थी । उन्होंने एक बार फिर घर का द्वार खड़खड़ाया और देवगिरि ने आकर एक बार फिर किवाड़ खोला। उसने क्या देखा? उसके सामने खड़े थे देवों के देव महादेव तथा समस्त जगत की पालनहारा माँ पार्वती अपने दिव्य रूप में! वह गद् गद् होकर उनके चरणों गिर पड़ी, आनन्द और पूज्यभाव से उसका हदय भर गया। माँ ने आशीर्वाद देते हुए कहा, "तुम्हारी भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ। आज मैं तुम्हें वरदान देती हूँ: तुम्हारा एक पुत्र होगा जो वंश को आगे चलायेगा और तुम्हारी एक पुत्री होगी जो तुम्हें कन्यादान करने का गौरव देगी।"शिव ने एक दुर्लभ वरदान देते हुए कहा, हम तुम्हारी भक्ति व सेवा से संतुष्ट हैं, हम दोनों तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए आये थे। मैं तुम्हारे द्वितीय पुत्र के रूप में जन्म लूँगा।" इतना कहते हुए दोनों अंतर्ध्यान हो गये।
*शिरडी साई का अवतार*
जब उसके पति आए तब देवगिरि ने सारा वृत्तांत उसे सुनाया । परन्तु पति ने उस दिव्य अनुभव तथा दर्शन , संभाषण व चरणस्पर्श के अद्भुत अवसर की बात का विश्वास नहीं किया । कहा कि अवश्य ही उसने स्वप्न देखा होगा। परमेश्वर के वरदान का भी उसने विश्वास नहीं किया, दुर्भाग्य से जीवात्मा प्रभु के भिन्न भिन्न रूपों में प्रकट होने पर विश्वास नहीं कर पाते है । गंगभवदीय प्रभु भक्त था, परन्तु पुरुष-सहज अहम् तथा भ्रान्ति ( भ्रम) के कारण उसमें ऐसा विश्वास नहीं आया । उसने सोचा बड़े-बड़े ऋषि मुनि इतने तप करते है , फिर भी उन्हें देव व देवी के दर्शन प्राप्त नहीं होते है और मेरी स्त्री जो एक अति साधारण नारी है वह कैसे इतनी भाग्यशाली हो सकती हैं?
एक वर्ष बीतते उनकी एक पुत्री हुई . फिर एक पुत्र का जन्म हुआ । तीसरी बार जब उसकी स्त्री ने गर्भ धारण किया तब गंगा को अपनी पत्नी के अनुभव की बात में कुछ विश्वास जगा। प्रसव से कुछ समय पूर्व गंगा के मन में विरक्ति आने लगी । उसे लगने लगा कि परमेश्वर ने उसकी पत्नी को इतना सब दिया परन्तु उसकी भक्ति होने पर भी भगवान ने उसे दर्शन नहीं दिया । उसने कहा कि वह गृहस्थाश्रम छोड़कर वन में चला जाएगा और उसने अपनी पत्नी देवगिरी की विनती पर भी ध्यान नहीं दिया और चल पड़ा। देव-गिरी की सगर्भावस्था या उसकी प्रार्थनाओं को भी नहीं सुना , बेचारी पत्नी क्या करती? अपने दोनों बालकों को पड़ोसी कै संरक्षण में छोड़कर यह पति की खोज में चल पड़ी । परन्तु पति कं मिलने से पहले ही उसे प्रसव वेदना हुई और शीघ्र ही उसके दूसरे पुत्र का जन्म हुआ । बालक को हाथ में लेकर वह दुविधा में सोचती रही कि नवजात शिशु का ध्यान करे कि पति को खोज में उसक पीछे जाए। उसने बालक को एक कपड़े में लपेटकर पेड़ के नीचे लिटा दिया और वहाँ से चली गई ।
वहाँ से जाते हुए एक मुसलमान सूफी और उसकी पत्नी ने क्रंदन करते हुए नवजात शिशु को देखा । संतान विहीन उस युगल ने उसे खुदा की मेहरबानी समझ कर बालक को उठा लिया और घर पर लाकर उसे अपने बालक की तरह पाल पोस कर बड़ा किया । सबने देखा कि वह बचपन से ही ज्ञान की बातें करता था और वह कोई साधारण बालक नहीं था।
*ऋषि वेंकुसा का आश्रम*
यह असाधारण बालक शीघ्र ही मन्दिर व मस्जिद में जाने लगा और लोगों ने देखा कि वह मन्दिर में कुरान की और मस्जिद में जाकर भगवद्गीता को बातें करन लगा । एक ही उसका प्रिय वाक्य था " *सबका मालिक एक* " उसकी ऐसी बातों से रूढ़िग्रस्त हिन्दू तथा कट्टर मुसलमान सभी कुपित होने लगे । जब कोई उसे रोकने का प्रयत्न करता था, तब वह अपने तर्कों के द्वारा चुप करा देता था। इसी बीच उसके पालनकर्ता पिता की मृत्यु हो गई और बूढ़ी माँ उसकी शिकायतों से तंग आ गई । माँ ने उसे गुरु वेंकुसा के गुरुकुल में ले जाने का निश्चय कर लिया ।
शिरडी साई बाबा का आगमन
भाग-4
जब वे दोनों गुरुकुल में पहुंचे तब ऋषि अपने शिष्यों को सूर्यनमस्कार तथा आदित्य हृदयम् के श्लोक सिखा रहे थे। पाठ समाप्त होने पर उन दोनों ने गुरु को वंदन किया साई को देखते ही गुरु हाथ जोड़कर तेजी से आग आये और बोले, "' बाबा मैं कब से आपकी प्रतीक्षा कर रहा था।” उन्होंने माँ को बताया कि उनका पुत्र कोई साधारण जीव नहीं है । माँ ने भी उस बात को स्वीकार करते हुए कहा कि वह अपने पुत्र को उनकी शरण में छोड़ कर जाना चाहती है। गुरु वेंकुंसा ने बाबा को अपनी शरण में लेते हुए उसे अपने शिष्य रूप में स्वीकार किया गुरु की आज्ञा का पालन करने की सीख देकर उनकी पालनकर्ता माँ आश्रम में उन्हें छोड़कर सदा के लिए चली गई ।
दूसरे दिन प्रात: शिष्यों ने उस दिन सिखाए गए सूर्यनमस्कार तो कर लिए परन्तु गुरुजी के द्वारा सिखाए गए सूर्यदेव के श्लोको का सही उच्चारण नहीं कर पाए। परन्तु बाबा ने सारे मंत्रों का सही पाठ सुना दिया । गुरु बहुत प्रसन्न हुए और पूछा अपने नए शिष्य से कि ये मंत्र कहाँ से सीखे थे। बाबा ने बहे भोलेपन से उत्तर दिया कि अगले दिन आश्रम में पहली बार प्रवेश करते समय उन्होंने गुरुजी को वही पाठ पढाते हुए सुना था और उन्हें "आदित्य हृदयम्" के श्लोक कंठस्थ हो गए थे। गुरुजी ने सारे छात्रों को साई बाबा की एकाग्रता का अनुकरण करने का परामर्श दिया उन्हें वह शिष्य अति प्रिय बन गया और अपनी निजी सेवा में उसे प्रवृत्त कर दिया । अन्य छात्रों को इससे ईर्ष्या होने लगी।
गुरु-शिष्य का बढ़ता हुआ प्रेम देखकर वे सब उससे घृणा करने लगे और एक दिन अवसर पाकर गुरु के चहेते शिष्य के साथ लड़ने झगड़ने लगे। उनमें से एक लड़के ने एक ईंट उठाकर बाबा को मारी जो जाकर जोर से उनके माथे पर लगी, रक्त बहता देखकर लड़के वहाँ' से भाग गये और कोलाहल सुनकर गुरु कुटिया में से बाहर आए। देखा कि साई को चोट लगी है,तो नीचे बैठकर उसका सिर अपनी गोद में रखा और घाव के उपर एक सफेद पट्टी कसकर बाँध दी । और फिर वैसा पट्टा या.पटका शिरडी साई जीवनभर अपने माथे पर बाँधते रहे थे।
*शिरडी में बाबा*
इस दुर्घटना के उपरान्त उस ऐतिहासिक ईंट को अपने साथ लेकर बाबा ने वह गुरुकुल आश्रम छोड़ दिया । वे वन मार्ग से जा रहे कि तभी वहाँ पर एक मुसलमान राहगीर जिसका नाम चाँद पाटील था वहाँ आ पहुँचा, जहाँ बाबा जैहै हुए थे। उस व्यक्ति की घोड़ी गुम हो गई थी। जिसे वह दूँढ रहा था और उसने बाबा क्रो अपनी खोई हुई घोड़ी के विषय में पूछा। बाबा ने बहुत ही सहज भाव से उस दिशा को और संकेत करते हुए बताया कि, कहाँ किस पेड़ के नीचे उसकी घोड़ी घास चरते हुए मिलेगी । बचपन में पाठ्य पुस्तक में पढ़ी हुई इस फकीर को कहानी हम सब जानते है । चाँद पाटील को उसका खोया हुआ पशु मिल गया और वह लौटकर बाबा का आभार प्रकट करने के लिए आया। तब क्योकि वह स्वयं एक निष्कपट हदय का सरल व्यक्ति था,उसको बाबा कै चेहरे पर को उस दिव्य आभा के दर्शन हुए, वह जान गया कि यह माथे यर पटका बाँधा हुआ लम्बा चोगा पहनकर, बढ़े हुए बाल और कंधे के ऊपर ईंट रखा हुआ कपड़े का झोला लटकाए फकीर जैसा दिखने वाला साई साधारण जीव नहीं हो सकता है । उसने तुरन्त बाबा को आग्रह करके आमंत्रित किया कि वे उसके परिवार में एक विवाह उत्सव में आकर आशीर्वाद दें। बाबा उसके साथ चल पड़े। वह गाँव था धूप गाँव ( अब धूप-खेडा) वहाँ से बारात शिरडी जा रही थी।
क्रमशः
भाग-5
शिरडी पहुँच कर बाबा सीधे गाँव की सीमा पर स्थित 'खंडोबा' के मन्दिर मे चले गए। बाबा को आता देखकर मन्दिर के पुजारी म्हालसापति ने बाबा का स्वागत करते हुए मराठी में कहा "या साई " अर्थात् आओ साई! ऐसा सम्बोधन पुजारी ने बहुत प्रेम व आदर के साथ किया था। बाबा ने म्हालसापति से पूछा कि ऐसा सम्बोधन किसलिए किया था? म्हालसापति ने उत्तर में कहा कि मन्दिर में बैठे हुए भगवान खंडोबा ने उनको 'साई बाबा' शब्द बोलने के लिए प्रेरित किया था । स + आई = सहित + माँ , मराठी भाषा में माँ को आई कहते है और वर्णमाला का बत्तीसवाँ व्यंजन (अक्षर) स उपसर्ग रूप में लगकर प्रेम सप्रेम, जीव सजीव इस प्रकार सहित या साथ का अर्थ देता है । अत: साई बाबा कहने में तात्पर्य ऐसा है कि शिव और शक्ति दोनों केवल एक बाबा के ही रूप में आए हैं । एक भक्त को, मातृ शक्ति की ममता व करुणा तथा परमपिता का संरक्षण; सब कुछ साई बाबा की शरण में आकर मिल जाता है। शिरडी में बाबा का आगमन होने पर उनकी दिव्यता को पहचानने वाले कुछ लोग थे, जिनमें प्रमुख थे-म्हालसापति, बाईजाबाई, कोटे पाटिल, माधवराव देशपांडे और कुछ अन्य।कुछ समय तक जंगल में इधर उधर घूमने के पश्चात् गाँव वालों के आग्रह करते रहने पर बाबा ने एक टूटी फूटी मस्जिद अपने रहने के लिए चुनी । उन्होंने इस स्थान को द्वारिकामायी का नाम दिया। यहाँ वे अन्त तक रहे ।18 अक्टूबर 1918 के दिन बाबा ने अपना देह त्याग दिया । इस दिवस का तिथि के अनुसार विजयादशमी का दिन मानते हैं और मुसलमान इसे मुहर्रम कहकर मनाते हैं।
लेखिका श्रीमती माधुरी नागानन्द, श्री सत्य साई ईश्वरम्मा विमेन्स वेलफेयर ट्रस्ट प्रशान्ति निलयम की एक न्यासी हैं।
संकलन: डॉ. सत्यकाम, शाहाबाद मारकंडा, हरियाणा ।
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