https://youtu.be/6ew9W9GTLq4
साधना पर आधारित श्लोक
स्वर : विभूति शर्मा
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उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: || 5||
हमें स्वयं अपना और अपनी आत्मा का उद्धार करना चाहिए. अपनी हिम्मत कभी न हारे क्योंकि हमारी आत्मा ही हमारा मित्र है और वही हमारा शत्रु भी. इसके अलावा न कोई हमारा मित्र है और ना ही कोई शत्रु।
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ १ ॥
हे अर्जुन ! यह शरीर 'क्षेत्र' इस नाम से कहा जाता है; और इसको जो जानता है, उसको 'क्षेत्रज्ञ' इस नाम से उनके तत्त्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं ।।1।।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबन्धन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५ ॥
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण – ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी शरीर में बाँधते हैं ।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।12.13।।
भूतमात्र के प्रति जो द्वेषरहित है तथा सबका मित्र तथा करुणावान् है जो ममता और अहंकार से रहित? सुख और दुख में सम और क्षमावान् है।।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥
उद्वेग को जन्म न देनेवाले, यथार्थ, प्रिय और हितकारक वचन (बोलना), (शास्त्रों का) स्वाध्याय और अभ्यास करना, यह वाङ्मयीन तप है ।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधः तथा लोभ स्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥
काम, क्रोध, तथा लोभ – ये तीन नर्क के द्वार, आत्मा की अधोगति करनेवाले हैं; इस लिए इनका त्याग करना चाहिए ।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।12.12।।
अभ्याससे शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है? शास्त्रज्ञानसे ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफलत्यागसे तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।
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उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: || 5||
हमें स्वयं अपना और अपनी आत्मा का उद्धार करना चाहिए. अपनी हिम्मत कभी न हारे क्योंकि हमारी आत्मा ही हमारा मित्र है और वही हमारा शत्रु भी. इसके अलावा न कोई हमारा मित्र है और ना ही कोई शत्रु।
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ १ ॥
हे अर्जुन ! यह शरीर 'क्षेत्र' इस नाम से कहा जाता है; और इसको जो जानता है, उसको 'क्षेत्रज्ञ' इस नाम से उनके तत्त्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं ।।1।।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबन्धन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५ ॥
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण – ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी शरीर में बाँधते हैं ।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।12.13।।
भूतमात्र के प्रति जो द्वेषरहित है तथा सबका मित्र तथा करुणावान् है जो ममता और अहंकार से रहित? सुख और दुख में सम और क्षमावान् है।।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥
उद्वेग को जन्म न देनेवाले, यथार्थ, प्रिय और हितकारक वचन (बोलना), (शास्त्रों का) स्वाध्याय और अभ्यास करना, यह वाङ्मयीन तप है ।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधः तथा लोभ स्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥
काम, क्रोध, तथा लोभ – ये तीन नर्क के द्वार, आत्मा की अधोगति करनेवाले हैं; इस लिए इनका त्याग करना चाहिए ।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।12.12।।
अभ्याससे शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है? शास्त्रज्ञानसे ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफलत्यागसे तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।
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